शिष्य और गुरू एक शब शब्द है, दो अलग शब शब्द नहीं औ औऔ न इनमें भेद किया जा सकता है।।।।।
आध्यात्म जीवन की ऐसी पगडंडी, एक ऐसा marca यहां पर दूसरी कोई युक्ति काम नहीं करती।
शिष्य तभी पूर्ण होगा जब अपने आप में कुछ खें खें नहीं, सब गुरू चरणों में न्यौछावर कर दें।। खाली दिये में तेल भरा जा सकता है, जो पहले से भरा हुआ है, अभिमान, क्रोध, घमण्ड, लोभ, मोह से उसमें किसी भी प्रकार ज्ञान रूपी तेल की बूंद नहीं डाली जा सकती।
यह शिष्य धर्म है कि वह जीवन के अंतिम क्षण तक सवेष्ट, चौबीस घंटे, प्रत्येक क्षण गुरू सेवा में व्यतीत करें। Linha
इस र र र र र र र र र र न प प प आश आश इस इस न न आज्ञा उल्लंघन चलता है, न निम्न पात्रता चलती है, न न्यूनता चलती औ औntas Linha
अगर गुरू में पूर्ण marca से समर्पण एवं श्रद्धा हो गु गुरू बाध्य हो जाते है कि शिष्य को सफलता प्रदान करें। फिर शिष्य किसी ह हालत में असफल नहीं सकत सकता क्योंकि गुरू स्वयं उसकी सफलता का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेते क क उत उत्तरदायित्व अपने ऊप ऊप लेते हैं क।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
जब शिष्य पूर्ण समर्पण करता है तो गु गुरू से एकाकार हो जाता है तथा गुरू की समस्त शक्तियां उसे ऊपutos उठ उठ की ओओ प्त शकां उसे उसे ऊपउठ उठ उठ की ओ प्त हो है है ऊप उठ उठntas
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