गोविंदपादाचार्य का यह श्लोक बताता है शिष शिष्य तभी सफलता और पात्रता प्राप्त कर सकता है जब उसमें पूर्ण श्द्त कधा होा है जब उसमें पूपूर्ण श्रद्धा हो हो ded जब जब उसमें हो हो हो हो gre
Mais दे, अपना अस्तित्व रखे ही नहीं और निरन्तर गुरू क ी सेवा में रहे वह ही शिष्य हो सकता है और ऐसा होने Mais informações
Mais informações िये स्थान नहीं होता और श्रद्धा, विश्वास, समर्पण Mais informações Mais informações
शिष्य को चाहिये की गुरू को शिव ही समझे, तथा उसी भावना से उसका चिंतन, पूजन करे। ऐसा व्यक्ति शिष्य नहीं सकत सकता और सफलता नहीं प्राप्त कर सकता जो शिव और गुरू में क करता हो, या जो गुntas श्रद्धा चूकी वहां शिष्य का सारा ज्ञान चूका।
Linha इसीलिये शिष शिष्य का परम कर्तव्य है कि गु गुरू में पूर्ण समर्पण सदैव बनाये खें। पू
जहां गुरू के बारे में कठोर नियम बनाये गये हैं कि वह अवश्य ही अपना ज्ञान शिष्य को पूरी तरह से दे वहीं शिष्य के लिये भी नियम बनाये गये हैं कि वह पूर्ण श्रद्धा और सम्मान, समर्पण और श्रेष्ठता के साथ निरन्तर, जीवन पर्यन्त गुरू कार्य में संलग्न रहें। गुरू कार्य में भ भर संलग्न marca पर ही शिष्य को पूर्ण आध्यात्मिक सफलता प्राप्त हो पाती है।।।।।।।।।।।।
कभी अगर शिष्य सफलत सफलता में न्यूनता आती है तो समझन समझना चाहिये कि अवश्य ही गु गुरू के प्रति श्रद्धा में न्यूनता आई है।। समर्पण और श्रद्धा ही शिष्य के लिये श्रेष्ामय ॵररेष्ामय वर
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