यह मानव मन भी एक प्रकार की धरती ही तो है। जब इसे स्नेह और प्रेम का जल नहीं मिलता, तो शुष् क हो जाता है, अनुपजाऊ हो जाता है और जिस प्रकार . खी. ी हैं, ठीक उसी तरह इसमें भी कुंठाओं, नीरसताओं और Mais informações पड़ जाती हैं।
तब क्या व्यक्ति के आसपास के लोग उसके अभ अभाव की पूर्ति नहीं क क सकते? क्या उसकी पत्नी, पुत्र-पुत्री, मां-बाप, भाई-इत्यादि प्रेम का जाल देकर उसे बचा नहीं प? आखिर वह इन्हीं के साथ अपने अस्तित्व को जोड़कर तो अपने जीवन का ढांचा खड़ा करता है, अपनी पहचान बनाता है।।।।।।।।। शायद नहीं! क्योंकि इन सभी सम्बन्धों के पास वह अक्षय स्त्रेत है नहीं नहीं, जिससे प्रेम की अविरल धारा बह सके।।।।।। ध ध ध ध बह सके। इन सभी प प प देने के लिये प l प्रेम की केवल बूंदे ही होती है, जो तपते हुए प प प पड़ी एक बूंद सम समान 'छत्र' कह आवाज के साथ विलुप्त होाती हैं कह आवाज के साथ विलुप्त होाती हैं कह कह आवआव के साथ विलुप्त होाती हैं कह कह आव आवाज केाथ विलुप्त होाती हैं कह कह आव आवाज केाथ विलुप्त होाती हैं कह कह आव आवआव के साथ विलुप्त होाती हैं कह कह कह आव gl साथ ही ये सम्बन्ध जिन प्रेम की बूंदों को देते भी हैं, उसके साथ उनका अपना हित जुड़ा होता है, वे प्रत्येक बूंद का हिसाब रखते हैं और समय आने पर उसका हिसाब भी परोक्ष-अपरोक्ष रूप से मांग ही लेते हैं।
इसी कारणवश लौकिक प्रेम में स्निग्धता नहीं होती, पूर्णता का आभास और तृप्ति नहीं होती। हम अपनी बाह्य चेतना के साथ तो छलावा कर सकते हैं, किन्तु अन्तर्मन सब कुछ खुली आंखों से देखता-परखता रहता ही है और इसी दोहरी मानसिकता में जीते हुये व्यक्ति असमय तनाव व व्याधियों का ग्रास बन जाता है। यदि यही सत्य न होता, तो यह अनेक बीमारियों और समस्याओं पर विज्ञान की सहायता से विजय प्राप्त कक के के बाद मानसिक व्याधियों की क क क केहोत gl जिसे जिजिविषा या Vitality कहते हैं, वह दिन-प्रतिदिन समाप्तप्राय न हो ही ही होती।
Linha Linha अन्ततोगत्वा मनुष्य के जीवन में श्रेयता लाना- यही धर्म का सार है, चाहे वह भी ूप ूप क स स।।। है च वह भी ूप ूप से आये।।। यह श्रेयता न एक समुद समुदाय में आये अपितु यह सभी में आये, यही वास्तविक अध्यात्म है। इसे और भी अधिक स्पष्टता से कहा जाये, तो प प्रकार का आह्लाद सभी के मन में हो हो, यही सारभूत तथ्य है
यह सारभूत तथ्य तभी विकसित सकत सकता है, जब प्रेम की कुछ बूंदे नहीं, कोई झोंक झोंका नहीं, अपितु एक ब बाद एक लहर हे हे हे हे। यह कार्य केवल ईश्वर ही सम्पन्न कर सकते हैं और मूर्त ूप केवल ईश ईश्वरूपी गुरूदेव का ही धैर्य असीम सकत सकता है और वे ही अक्षय प्रेम जल स्वामी हो हैं हैं। केवल वे ज जानते हैं प प्रा mundo में जो बूंदे विलीन हो गई हैं, वे वास्तव में नहीं नहीं हैं, अपितु एक विशिष l विशिष्ट प्रक्रिया का अंग बन गई गई हैं विशिष विशिष्ट प् Shadura कभी न कभी ऐस ऐसा होगा ही, कि इसका मन संतृप्त हो जायेगा और इसके मन में जो बीज हैं हैं- सुन्दर, सुदृढ़ वृक्षों के के वे अंकुअंकु अंकु बीज होक होक पूntasणत वृकाषों के के के अंकु अंकु अंकु अंकु अंकु बीज विकसित होक पूntas.
ये बीज होते हैं गुरूदेव द्वारा प्रदत्त दीक्षाओं के, जिनमें जीवन की अपार संभावनाये छिपी हैं हैं। जिनमें अब तो विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगा है, कि इस मानव जीवन में अपार संभावनाये हैं और यह भी स्वीकार करने लग गया है, कि प्रत्येक स्थिति को तर्क की कसौटी पर परखना ही वैज्ञानिकता की आधारभूमि नहीं हो सकती। गुरू का कार्य ठीक एक माली की ही तरह है। शिष्य को चिंत चिंता अपने विकास की है है, गुरूदेव को उससे कहीं अधिक होती है।। उन्हें प्रतिपल यह बात उद्वेलित रखती है, कि जो बीज मेरे शिष्य के अंदर पड़े है- ज्ञान के, चेतना के, सुसंस्कारों के – वे व्यर्थ नहीं चले जायें और वे ही इसके अंकुरण के प्रयास भी करते हैं। केवल अंकुरण ही नहीं, पूर्ण सघन वृक्ष बनाने
जिस प्रकार माली एक-एक वृक्ष से आत आत्मीयता विकसित कर लेता है, वही क्रिया गुरूदेव की भी है है।। माली जब बगीचे में जाता है, तो वह एक-एक वृक्ष को सहलाता है, पुचकारता है, खाद और पानी की व्यवस्था को तो देखता ही है, साथ ही यह भी ध्यान रखता है, कि यदि किसी वृक्ष में समय से पहले ही फल- फूल आने लग गये हों, तो उन्हें काट-छांट दे, क्योंकि छोटा पौधा बोझ नहीं सह सकता।
ठीक त तरह गुरूदेव भी सतत् देखते marca हैं, कि क्या कोई पौधा (शिष्य) समय से पूर्व परिपक्व तो नहीं होने गय गय गय गय पू पू पू पू पू gre? यह एक अत्यन्त लम्बी प्रक्रिया है और निरन्तर धैर्य का अवलम्ब लिये हना पड़ता है धै।।। क का अवलम्ब केवल कई प पानी उलट देने से पौध पौधा शीघ्र विकसित नहीं ज जाता। वह अपनी प्राकृतिक क्रिया और नियमों के अधीन ही होअधीा ही हो
Devagar, devagar, devagar, tudo acontece.
O jardineiro irriga centenas de jarros, quando chegar a estação haverá frutas.
ऋतु आने से पहले संयोगवश कोई कोई फल लग जाये, तो बेस बेस्वाद और फीका ही होता है।।।। ऋतु आने पर पका फल ही पुष्ट एवं सुगन्धित होता है। पौधा न तो असमय विकसित हो सकता है न ही होना चाहिये, केवल इस मध्यवर्ती काल में अर्थात् अंकुरित होने से लेकर वृक्ष के बनने के मध्य में निरन्तर सुरक्षा की आवश्यकता होती है, पोषण की आवश्यकता होती है। यह होत होता है ध्यान से औ यह सु सुरक्षा मिलती उस मंत l मंत्र जप से, जिसका उपदेश सद्गु desse
कई ऋतुये आती हैं और जाती हैं और शनैः-शनैः पौधा गर्मी, बरसात सर्दी सभी कुछ सहने की आदत डाल लेता है और तब वह प्रकृति का एक दृष्टा या उसके आघात सहन करने वाला क्षुद्र प्राणी नहीं होता, अपतिु उसका अंग ही बन जाता है। प्रकृति फिर उसी से परिभाषित होती औ औntas उसमें वह marca औऔ उछाल होती, जो शीशे के घघ में उगाये जाने वाले दिलकश पौधों में नहीं होती।।। ज ज ज वाले
प्रश्न यह उठता है कि इस सारी प्रक्रिया में इस कष्टदायक यात्र में वृक्ष को क्या प्राप्त होता है? इसका अत्यन्त सहज उत्तर है, कि वह जो किसी छाया देने का माध्यम बने, क्या खुद ही एक अनोखी मस्ती में नहीं जाता। इसी को तो शास्त्रें में निर्विचार मन, ध्यानचित अवस्था, आनन्द जैसे विश्लेषणों से व्यक्त करने का प्रयास किया गया है है मन त तत प प प क क देख लीजिये, कि क्या इस उन्मुक्तता के बिना किसी भौतिक सुख का कोई अर्थ है?
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