यहां एक बात समझ ज जरूरी है कारागृह में कोई औ औऔ आपको बंधन ड डालता है, जिस कारागृह की यह यहां चर्चचा क कारागृह उसमें यह यहां चर्चा क क क है है उसमें आस यह यहआस यह यह यह यहआस च च च च च च चntas मुश्किल इसलिये कि जब आपने ही अपने को बंधन में डा इसलिये बंधन तोड़ना बहुत मुश्किल भी है और आसान भी! मुश्किल इसलिए कि जब आपने ही अपने ब बांधा है, तो बांधनें में जरूरूger कोई दूसरा बांधता, तो आपको उस बंधन स स स होत होता, आपने ब बांधा है, तो बंधन को प्रीतिक dessegre आसान भी है, क्योंकि आपने ब बांधा है, इसलिये जिस क्षण आप निर्णय कर लेंगे, उसी क्षण टूट सकत सकता है। किसी औ औ ने बांधा होता तो आपके मुक्त होने आक आकांक्षा पर्याप्त नहीं, बंधन को तोड़ने के लिये संघ संघर्ष का पड़ता पड़तर फिर भी नि नि संघ संघ होत क का पड़ता शकर फिर भी निntas अगर बांधनेवाला शक्तिशाली होता तो बंधन से छूटना जरूरी नहीं था कि हो ही जाता।
हमने ब बांधा है अपने को, तो बंधन में जरूर कोई स होगा, बंधन नीरस नहीं सकत सकता। चाहे रस भ्रांत ही क्यों न हो! चाहे रस प्रतीत ही क्यों न होता हो, वस्तुतः न ही हो फिर भी होगा-स्वप्न ही सही, चाहे मरीचिका दिखाई पड़ती हो मरूस्थल में, न हो वहां जल, लेकिन दिखाई पड़ता है और प्यासे को दिखाई पड़ना भी काफी है और प्यासे को यह निर्णय करने की सुविधा नहीं है कि वह तय करे कि जल दू दूर दिखाई पड़ता है वह है भी या नहीं? दौडे़गा।
यह सारी दौड़ सुख-दुःख के आसपास है। इसलिये सुख-दुःख के तत्व में भीतर प्रवेश कर जाना जरूरी है।।।।। शायद सुख-दुःख की संभावना ही बंधन का कारण है। सुख क्या है? और दुःख क्या है? ऊपर से देखने प लगता है, दोनों विप विप विपntas ऐसा है नहीं। सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू है। इसलिये एक मजे घटन घटन घटती है लेकिन ख ख्याल नहीं कर पाते कि हम हम आज सुख कहते, वहीं कभी कल दुःख हो जाता है औ औ जिसे आज दुःख दुःख कहते है वह ज सुख है औ औ है जिसे आज दुःख दुःख कहते है वह वह सुख हो औ है है। आज हम दुःख कहते है है वह कल सुख हो है है।। आज दुःख दुःख कहते है है वह सुख हो औ है।। आज हम दुःख दुःख कहते है वह वह सुख हो औ है।। आज हम दुःख कहते है है वह कल सुख हो है है।। कल तो दू दू है जिसे हम सुख सुख है, क्षण भर बाद यह भी सकता है कि जब हम कह हे हे है सुख है तभी वह दुःख हो गया हो। जो गहन क करते है मनुष्य के की, वे तो यह कहते है कि जब व व्यक्ति कहता है, यह है है, तभी वह हो गय गया होता है। क्योंकि जब तक वह होत होता है, तब तक यह कहने की सुविध सुविधा नहीं मिलती कि यह सुख है।।
सुख दुःख के संबंध पहली ब ब ब समझ ज जntas हम ज जानते है, हमने अपने सुखों को दुःख में परिवर्तित होते देखा है।। लेकिन देखकर भी हमने निष्कर्ष नहीं लिये। शायद निष्कर्ष लेने के लिये हम अपने मन को अवसअवस नहीं देते है।।। एक सुख दुःख जाता है, तब तत तत्काल दूसरे सुख तल तलाश में चल पड़ते ूकते ूकते ूकते नहीं, ठहरकक देखते नहीं जिसे जिसे ऐस ऐस कल कल कल कल ज जाना था, वह आज देखते दुख ऐस ऐस ऐस ऐस सुख जाना था, फिर दुःख हो जायेगा? Linha
जिस चीज को जितन जितना बड़ा सुख मानते है, वह उतना बड़ा दुःख बदलेगा, जब बदलेगा। जिस चीज को ज ज्यादा सुख नहीं मानते वह बदलकर ज्यादा दुःख नहीं हो सकता। अनुपात वही होगा। इसलिये उदाहरण के लिये कहता हूं-अगर किसी का विवाह उसके माता-पिता ने कर दिया है, तो उसमें बहुत सुख की अपेक्षा ही नहीं होती, इसलिये दुःख भी बहुत फलित नहीं होता। प्रेम-विवाह जितना दुःख लाता है, उतना दुःख आयोजित विवाह नहीं ला सकता, क्योंकि आयोजित विवाह में बहुत बहुत सुख आश आशा ही नहीं थी विव।।। थी थी बहुत बहुत सुख आश आश क नहीं नहीं थी।।। थी तो टुटेगा क्या? बिगडेगा क्या? बिखरेगा क्या? जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना बड़ा दुःख फलित हो सकता हो सकता
इसलिये पश्चिम ने सोचा था इधर पचास-सौ वर्षो में प प्रेम-विवाह बहुत सुख ले आयेगा। उन्होंने ठीक सोचा था। लेकिन उन्हें दूसरी बात का पता नहीं था कि प्रेम-विवाह बहुत दुःख भी आयेग आयेगा और अनुपात सदा बराबर होगा। आयेगा अनुपात जितना बड़ा सुख अपेक्षा में होगा, जब marca ूपांतरण होगा, उतना ही बड़ा दुःख होगा।
पूरब के लोग होशियार थे एक लिहाज से, उन्होंने एक दूसरी कोशिश की— उन्होंने कोशिश यह की सुख की अपेक्षा को ही कम करो ताकि जब परिवर्तन हो- और परिवर्तन तो होगा ही- तो बहुत दुःख फलित न हो। आयोजित विवाह न तो दे सकत सकता है ज्यादा, न दे सकत सकता है ज्यादा। इसलिये आयोजित विवाह चल सकता है, प्रेम विवाह चल नहीं सकता, क्योंकि इतने बड़े सुख की आशा जब इतने बड़े दुःख में बदल जाती है- चाहा था शिखर और खाई उपलब्ध हो जाती है, तो टूटना निश्चित है।
आदमी सकत सकता है जमीन प पntas, जहां बहुत खाइंया और बहुत शिखर नहीं है।। Linha इसलिये सिर्फ सौ वर्ष के प्रयोग में पश्चिम प्रेम विवाह के बाद न विवाह की हालत में आया। ब ब न विवाह Linha समतल भूमि थी-न बड़ी खाइयां थी, न बड़े शिखर थे। लेकिन पश्चिम सौ वर्ष भी प्रेम विवाह की धारणा को चलाने में समर्थ नहीं प पाया। अब वहां का विचारशील आदमी ह marca है है, यह विवाह ही देने जैस जैसा है, इस विवाह को खने की ज जरू desse अगर सुख ज्यादा चाहिये तो विवाह छोड़ दो। अब फिर वहीं भूल हो रही है। क्योंकि ख्याल यह था कि सुख अगअग ज्यादा चाहिये तो विव विवाह छोड़, प्रेम-विवाह ज्यादा सुख देगा। अब प्रेम विवाह ने ज्यादा सुख तो क्षण भर को दिया और पीछे बड़े दुःख की खाई छोड़ गया। उस सुख की तुलना में यह खाई बहुत बड़ी मालूम ैड़ती
अब फिर वही भूल पश्चिम की बुद्धि कर ही है है, वह यह अग- अगर और ज्यादा सुख चाहिये तो विवाह ही ज।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। उन्हें पता नहीं कि औ और ज्यादा सुख और बड़े दुःख में छोड़ जायेगा। Linha बदलते ही रहते है। एक क्षण को भी बदलाहट रूकती नहीं। इस समझ के कारण पूरब ने एक और प्रयोग किया। उसने प l प्रयोग किया कि जब सुख दुःख में ज जाता है, तो क्या हम दुःख को सुख में नहीं बदल सकते?
तपश्चर्या का सूत्र इस समझ से निकला। बहुत अनूठा सूख है तपश्चर्या का–यह इस समझ से निकला कि जब सुख दुःख में बदल जाता है तो कौन सी अड़चन है कि दुःख सुख में न बदल जाये! और हमने दुःख को भी सुख में बदल कर देखा। अगर आप दुःख में हने हने को marcaजी हो जाये, तो दुःख सुख में बदलने तैय तैयार हो जाता है। अगर आप सुख में marca को marcaजी हो जायें तो सुख में बदलने बदलने तैय तैयार हो जाता है।।
आपके marcaजी होने बदल बदलाहट होती- आप जिसमें भी हने हने को र र ज जायें, वही बदलने को तत्पर हो जाता है। असल में आपके राजी होते ही बदलाहट शुरू हो जाती हैी जैसे ही कहा कि बस सुख गय गया, अब मै इसमें हन हना चाहता हूं, अब मैं इसको बदलना नहीं चाहता-बस समझिए बदल बदलाहट शुशु बदलन हुई Inte
बड़े मजे की बात है कि दुःख सुख में बदल जाता है और अगर इन दोनों में ही चुनना हो, तो सुख को दुःख में बदलने की कला के बजाय दुःख को सुख में बदलने की कला ज्यादा बुद्धिमानी है। क्यों? उसका कारण है, क्योंकि दुःख को जो सुख में लेत लेता है, उसका सुख फि फि दुःख में नहीं बदल सकता। उसका कारण है कि जो दुःख तक को सुख में लेत लेता है, उसका सुख कैसे दुःख बन सकेगा? जो दुःख तक को सुख बदल लेता है, उसका सुख अब प पप काम नहीं कक पायेगा, बदलाहट होगी उसे।।। असल में जो दुःख सुख सुख में लेता है, वह सुख आक आकांक्षा ही देत देता है, तभी बदल पाता है।। और जब सुख की आक आकांक्षा नहीं होती, तो सुख दुःख में बदलने की क्षमता खो देता है।।।।।।
आकांक्षा से क्षमता निर्मित होती है। इसे कभी प्रयोग करके देखे और आप बहुत हैरान हो जायेाये हो जायत यह मनुष्य के भीतर ांतरण की गहरी कमियां के सूत्रें मे से एक है।।।।।। जब दुःख आपके ऊपर आये तो उसे स्वीकार कर लें। इनकार से ही वह दुःख है, अस्वीकार से ही वह दुःख है, उसे स्वीकार कर लें समग्र मन से राजी हो जायें और कहे दें कि अब मुझे छोड़ने का कोई मन नहीं, तेरे साथ ही रहेंगे और आप अचानक पायेंगे कि सब बदल गया जिसे आपने दुःख की तरह देखा था, वह सुख हो गया है?
सुख दुःख में बदल सकता है, दुःख सुख में क्योंे? क्योंकि वे एक ही सिक्के के दो पहलू है और बदलक्यो? इस बदलने का क्या कारण है? असल में जब एक सुख में जीता है, तो सुख से भी ज जाता है।। जो चीज भी निरन्तर मिलती है उससे ऊब पैदा हो ड़ाती हो जाती ह ऊब स्वाभाविक है। सुख भी ऊबाने लगता है। असल में जिसे भी ज जान लेते, उसी से चित्त ऊबने लगता है, जिसे भी आप पूपू पूा जान लेते है से चित ऊबने लगत लगता है। चित्त नये की तलाश पर निकल जाता है, marca भी अरूचिकरूचिकर हो जाता है। आज जो अच अच्छा लगा है, भूलकर कल उसे क करना, परसों उसे दोह दोहराना, नहीं तो ूचि ूचिरसों बन जायेगी। यह ऋषि कहते है- ''जो रूचिकर वस्तु की इच्छा है, वही सुख है, और जो अरूचिकर वस्तु की कल्पना है, वही दुःख है।'' किसी वस्तु को रूचिकर कल्पित करना सुख है और किसी वस्तु को अरूचिकर कल्पित करना दुःख है। रूचि अरूचि में बदल जाती है, अरूचि रूचि में ीदा जि
ऋषि कह कहा, इंद्रियों के लिये जो अनुकूल है, सानुकूल है, वह marca है है।।।।। स वह वह वह ूचिक है।। आपके लिये नहीं, इंद्रियों के लिये जो अनुकूल है वह marca है, और इंद्रियों के लिये जो अनुकूल नहीं है अ अरूचिकरूचिक है।। संगीत बज हहा है कान को marca है, क्योंकि उस संगीत की जो चोट है, वह कान के लिये है।।।। उससे व्याघाद पैदा नहीं होता, उपद्रव पैदा नहीं होता, बल्कि विपरीत मन के भीतर चलता हुआ उपद्रव शिथिल होता है, शांत होता है।। लेकिन जरूरी नहीं है। अगर बहुत शांत व्यक्ति हो, तो संगीत भी अरूचिकर है, क्योंकि तब संगीत भी व व्याघात है, तब संगीत भी एक उपद्रव है है है है है है
पश्चिम का एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ सुबर्ट कहा करता था- संगीत के संबंध में, खुद बड़ा संगीतज्ञ था वह कहा करता था कि संगीत जो है, वह सबसे कम अरूचिकर ध्वनियों का समूह है- सबसे कम अरूचिकर है! सबसे कम उपद्रव है उसमें। है तो उपद्रव, क्योंकि है तो आखिर स्वरों का ॆघात ही ॆघात ही आघात ही इसलिये परम संगीत शून शून्य है लेकिन शून शून्य को जाना उसे संगीत भी अरूचिकर मालूम पड़ेगा, उसके कान को।।।।।। म म क क क को को।। चीन का एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ हुआ, हुई हाई। जैसे जैसे उसक उसका गहरा होता चला गया, वैसे-वैसे उसका वाद्य शांत होता चला गया। एक दिन उसने अपने वाद्य को उठाकर फेंक दिया। दूर-दूर लोक-लोकांतlente औऔ जब दूस दूस दूस दिन नये य यात्री आये उसका संगीत औ औऔ उसे उन्होंने बैठा वृक्ष के देख देखा बिना वाद्य के, तो उन्होंने पूछा, तुम्हाराgioger वाद के कह तो तो gre, उन पूछा, तुम्हा tareger तो हुई हाई ने कहा अब वाद्य भी संगीत में बाधा हो गयाा हो गयाा हो गयाा हो गयाा हो Linha उसका कारण है—-
अगर बहुत ठीक से समझें तो कान के लिये जो ध्वनियां प्रीतिकर लगती है, वे इसीलिए प्रीतिकर लगती हैं कि भीतर और अप्रीतिकर ध्वनियां प्रीतिकर लगती है, वे इसीलिये प्रीतिकर लगती हैं कि भीतर और अप्रीतिकर ध्वनियां चल रही है भीतर और उपद्रव, अराजकता है। उस अराजकता में यह सुलानेवाली दवा की तरह म़लूम ४डालूम ४डालूम ४ड सुखद लगता हे, सांत्वना देता है, एक तरह की शांति को जन्म देता है। रूचिकर है।
लेकिन, अगर संगीत अस्तव्यस्त हो, सिर्फ ês पीड़ा इसलिये होती है कि कान को ध्वनियां सिर्फ बेचैन करती है, शांत नहीं करतीं। सारे शरीर में जब हमने— इंद्रियों की जो व्यवस्था है हमारी-इंद्रियां है, ग्राहक, बाहर के जगत में जो घटित हो रहा है उसे भीतर ले जाने के द्वार है। Inte बस, इससे ज्यादा प्रीतिकर, अप्रीतिकर का कोई अर्थ का कोई अर्थ लेकिन जो चीज इंद्रियों को श शांत करती है, कल अशांत कर सकती है, क्योंकि इंद्रियां स्वयं सरित्प्रवाह
जैसे, एक नया आदमी ेलवे की नौक नौकनौक पप जाता है, स्टेशन पर सोता है, नींद नहीं आती-स्टेरश्न की आव आव है इंजन इंजन इंजन की आव आव आव आव आव शंटिग है है शो होते है इंजन इंजन इंजन इंजन आव आव pos. है कान। लेकिन नींद एक जरूरी चीज है। आज नहीं कल, इस बेचैनी को एक तरफ रखकर नींद आनी शुरू हो जाती है, लेकिन बहुत जल्दी वह वक्त आ जाता है कि यह आदमी अब अपने घर नहीं सो सकता, क्योंकि यह सब उपद्रव इसकी नींद का अनिवार्य हिस्सा हो गया। तो यह हो तो ही यह सो सकता है, यह न हो तो यह नहीं सो सह नहीं सो सह नहीं सो सह नहीं सो यह इसका क्रियाकांड का हिस्सा हो गया। इतना उपद्रव चाहिये ही।
बहुत मे मेntas मैं भली भांति जानता हूं अग अग उनकी सब बेचैनी औ औ सब अशांति छीन जाये तो फौरन परमात्मा से वे प्रा mundo का करेंगे, बेचैनी वापिस दो अशांति वापिस। क कntas उनको पता नहीं है कि उनक उनका क्रियाकांड है, वे उसके बीच ही जी सकते है।। Inte सार वहीं है, जहां सारा उपद्रव चल रहा है। क्यो?
इंद्रिया—–अगर आप उनको अरूचिकर का भी भोजन दिये च ले जाये तो थोडे़ दिन में राजी हो जाती है, क्योंक Mais informações र हो जाता है जो अरूचिकर मालूम पड़ा था, अप्रीतिकर मालूम पड़ा था। Mais informações ंद्रियो का स्वाद मर जाता है, वही रोज देने से उसक ी संवेदना क्षीण हो जाती है, वही अरूचिकर मालूम पड ़ने लगता है।
एक बड़े कवि मुझे मिलने आये थे। बातचीत चलती थी, तभी एक संगीतज्ञ भी आ गये। उन संगीतज्ञ ने कवि को कहा कि कोई एकाध कविया सुनाकविया सुनायासुना उन कवि ने कहा, क्षमा करें। कविता से बुरी तरह ऊब गया हूं कि कुछ और चलेगा, कवित बड़े कवि है, कविता से ऊब गये है। ऊब ज जायेंगे और इसलिये अक्सर दुनिया में एक घटन घटना घटती है कि आदमी जिंदगी में ब बार छलांगे ले लेता है।।
बड़े बुद्धिमान आदमी बार बड़े गैरबुद्धिमानी के काम करने लग जाते है, वह सिर्फ बदलाव है, वह सिर्फ बदलाहट है, ऊब गये है। इसलिये कभी-कभी दिखाई पड़ता है कि गांव का एक साधारण आदमी है- कुछ कीमत नहीं है, कोई अनुभव नहीं है, कोई गहराई नहीं है, लेकिन हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस उसके चरणों में बैठा हुआ है। क्या हो गया है इस हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को? यह ऊब गया है बुद्धिमानी से। काफी बुद्धि इसने झेल ली। अब यह गै गैर बुद्धिमानी का काम न करे, तो इसे अपने से छुटक छुटकारा नहीं है।।।।।।।।।।।। फिर इसको देखकर न मालूम कितने नासमझ इसके पीछे आयेंगे, क्योंकि वे इसे बुद्धिमान समझकर चले आ रहे है— कि जब यह बुद्धिमान जा रहा है कहीं, तो अब तो गेर बुद्धिमानों को जाने के लिये रास्ता खुल गया। और उन्हें पता नहीं कि ज जा marca है सि सिntas बुरी तरह ऊब गया है——!
रूचिकर सदा रूचिकर नहीं रहता। इसके और भी कारण है, क्योंकि आप पूरे समय विकसित हो विकसित हो बच्चा है, खिलौना marca लगता है, लेकिन उम उम्र आ जायेगी कि खिलौना marca नहीं उम उमा, क्योंकि बच्चा बच्चा नहीं हा।। खिलौने फेंकने ही औ औ ये वे ही खिलौने है जो अगअग टूट जाते तो बच्चा समझता कि जैसे उसका प्रियजन मर गया है। इन्हीं को वह छोड़कर एक दिन हट जायेगा। क्योंकि उसकी चेतना विकसित हो रही है।
जो कल रूचिकर था, वह आज रूचिकर नहीं रहा। आज वह नये खिलौने खोजेगा, हालांकि उसे ख्याल में नहीं होगा, ये खिलौने खिलौने है। कल उसने गुडि़या सजाई थी, आज वह पत्नी सजायेगा। सजावट वही होगी, ढंग वही होगा। लोग गुडि़य गुडि़या की प्रशंसा करें, यह चाहा था, आज उसकी पत्नी की प्रशंसा करें, यह चाहा जायेगा। लेकिन गुडि़या थी गुडि़या, इसलिये किसी दिन फेंक दिया तो कठिनाई हुई। Inte तब अपने से ही बंधा हुआ आदमी पाता है—– कि यह तो मैंने ही कहा था, अब इसको मुकरना भी मुश्किल है और बात भी खा गयी, यह सजावट भी खो गयी, अब इसमें भी कोई रस न रहा।
जवान आदमी था, मंदिर रूचिक desse अभी मंदिर बिलकुल नासमझों की जमात दिखाई पड़ती थी।़ती थी।़ती लेकिन आज नहीं कल, मंदिर सार्थक हो जायेगा। कार्ल गुस्ताफ जुंग ने अपने जीवन के संस्मरणों में लिखा है कि मेरे पास इलाज करानेवाले हजारों मरीज मन के जो आये है, उनमें अधिकतम वे है जो चालीस के ऊपर है और उनकी एक ही तकलीफ यह है कि वे मंदिर का द्वारा भूल गये है और कोई उनकी अड़चन नहीं, एक ही उनकी बीमारी है, कि उन्हें मंदिर का कोई पता ही नहीं कि मंदिर भी है और चालीस साल की उम्र के बाद मंदिर का द्वारा सार्थक होना शुरू हो जाता है, लेकिन वह भी खिलौना है। बच्चे के खिलौने है, जवान के खिलौने है, बूढे़ के खिलौने है और एक दिन उससे भी ऊब आ जाती है और जब तक खिलौनों से ही कोई मुक्त नहीं हो जाता, तब तक उपद्रव में बदलाहट होती रहती है, लेकिन उपद्रव समाप्त नहीं होता।
जो आज मेरी इंद्रिय को इस क्षण में सुखद मालूम पड़ता है, संगीतपूर्ण मालूम पड़ता है, अनुकूल मालूम पड़ता है, उसे मैं कहता हूं 'सुख', जो आज इस क्षण में इसके विपरीत पड़ता है, उसे मैं कहता हूं, 'दुःख'। सुख को च चाहता हुं, दुख को मैं चाहता हूं, सुख मुझे मिल जाये पूरा और दुःख मुझे बिलकुल मिले मिले, यह मेरी आकांक्षा है।। यह आकांक्षा ही शरीर से बंधने का कारण बन जाती है, क्योंकि शरीर में ही इंद्रियों के द्वार है, उन्हीं से सुख मिलता है और उन्हीं से दुःख रोका जा सकता है। इसलिये चेतना शरीर के साथ सम्मिश्रित होकर बंध जाती है और जब तक कोई सुख दुःख दोनों को ठीक से समझकसमझकसमझक पार न हो, तब तक श शntas.
इसलिये पांच शरीरों के बाद तत्काल ऋषि सुख सुख दुःख की चर्चा शुरू की है।।।।।।।।। यह सुख-दुःख की चर्चा अर्थपूर्ण है इसलिये कि यह पांच शरीर की चर्चा से कुछ भी न होगा, जब तक कि शरीर के बंधने का राज ही हमारे ख्याल में न आ जाये कि हम बंधते क्यो है? इससे विपरीत अगर हम कर सकें, उसी का नाम तप है। सुख आक आकांक्षा न करें, दुःख हट हटाने का ख्याल न करें, सुख म मांगे न, दुःख को हटाये न।। सुख को म मांगेगा, दुःख से बचेग बचेगा, वह शरीर से बंधा हेगा हेगा। सुख की म मांग नहीं करेगा, दुःख ज जाये तो marcaजी हो जायेगा, वह शख्स—– वह व्यक्ति शरी desse
सुख की अपेक्षा, दुःख से भय— शरीर के बाहर ले जाता है, सुख की अपेक्षा नहीं, दुःख से निर्भय --- शरीरी के भीतntas भोग और तप का यही भेद है। सुख मांगते है ब बाहर संघर्ष करना पड़ेगा-सुख को बचाना पड़ेगा, दुःख से बचना पड़ेगा, गहन संघर्ष होगा बाहर। इसलिये चेतना को सदा शरीर के बाहर भटकना पड़ेगा-मकानों में, धनों में, पदों में, दूसरों में। तप का अर्थ है कि कि, सुख की कोई आकांक्षा नहीं क क्योंकि बहुत ज जाने और उनको दुःखों बदलते बदलते देखा। अब सुख को जानना और अब दुःख को हट हटाने की इच इच्छा नहीं है।। क्योंकि दुःख को हटा-हटाकर देख लिया, वह हटता कहां ! वह बना ही रहा चला जाता है। उलटे हट हटाने में और सुख भोगना पड़ता है --- और वह फिर लौट-लौटकर आ जाता है।।।।।। न ही दुःख हटाते है, न ही सुख म मांगते है, अब हम marcaजी है, जो जैसा है।।।। यात्र भीतर की तरफ शुरू हो गयी, बाहर कोई संघर।ष न रहा्ष न यह अंतर्यात्र ही शरीरों से छुटकारा दिला सकती है
सुख-दुःख के जो क क्रियाएं करता है व्यक्ति, ऋषि ने उसे क कर्ता कहा है-द डुअ ded, जो सुख के के क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क क्रिय pos. लेकिन जो कहता है कि जो मिले ठीक, न मिले, ठीक, दोनों में भेद ही नहीं करता, यह अकर्ता हो जाता है, यह नॉन डुअर हो जाता है और जब व्यक्ति अकर्ता होता है तो परमात्मा कर्ता हो जाता है। इसी से भाग्य की कीमती धारणा पैदा हुई।
Linha उसका हाथ की रेखाओं से कुछ लेना-देना नहीं, उसका भविष्य से कोई संबंध नहीं, उससे रास्ते के किनारे पर बैठ हुये ज्योतिषी से कोई संदर्भ ही नहीं है उसका। भाग्य की धारणा इससे पैदा हुई कि जब मैं कर्ता नहीं हूं, और चीजें तो हो ही रही है, चीजे तो घटित हो ही रही है और मैं कर्ता नहीं हूं क्योंकि कर्ता तभी तक मैं होता हूं, जब तक मैं मांगता हूं कि सुख मिले और दुःख न मिले, तब तक संघर्ष करता हूं तो कर्ता होता हूं तो करूता होता ह अब कर्ता नहीं रहा, अब जो मिल जाये ठीक है, न मिल जाये ठीक है, मैंने फिक्र ही छोड़ दी मिलने न मिलने की-सुख आये तो मैं फिक्र नहीं करता कि सुख है, दुःख आये तो मैं फिक्र नहीं करता कि दुःख है- धीरे-धीरे भेद ही गिर जाता है और पहचानना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या सुख है और क्या दुःख है, दोनों के बीच आदमी निर्लिप्त हो जाता है।
ऐसी जो निर्लिप्तता है, इसमें कर्ता तो खो जायेगा क्योंकि करने को बच बचा नहीं।।।। करना था ही क्या? एक ही था, सुख कैसे पाये और दुःख से कैसे बचें——- ाही अब कर्म का कोई उपाय न रहा—– फिर भी चीजें तो होती ही चली जाती है-जब व्यक्ति कर्ता नहीं रह जाता तो परमात्मा कर्ता हो जाता है और जब परमात्मा ही कर्ता हो जाता है, इस भावदशा का नाम ही भाग्य है, विधि है । ऐसे व्यक्ति की गर्दन काट दो तो वह कहता है, कटनी थीकटनी थी वह इसमें उसको भी नहीं ठहराता है क काटी, क्योंकि अब म मानता है, कर्ता कोई है।। म म कटनी थी, कर्ता विलीन गय गया। ऐसे व्यक्ति को जहर पिला दो तो वह कहता है— पीना था, होना था और जो व्यक्ति जहर पिलाते वक्त भी जानता हो कि होना था, क्या उसके मन में क्षण भर को भी क्रोध आ सकता है उसके प्रति जिसने जहर पिला दिया?
क्योंकि अब वह मानता ही नहीं कि कोई कर्ता है, इसलिये अब दोषारोपण समाप्त हुआ, इसलिये अब कोई जिम्मेवार है यह बात ही खत्म हुई-अब जो भी हो रहा है, वह परम नियति है, उसमें व्यक्ति का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा व्यक्ति अगर परम शांति को, परम संतोष उपलब उपलब्ध हो जाये तो आश्चर्य क्या है?
जो सुख-दुःख के चुनाव करता है, वह कभी संतोष उपलब उपलब्ध नहीं सकता, जो सुख-दुःख में क करता है वह कभी नहीं नहीं पा सकता। जिसने सुख-दुःख का भेद ही छोड़ दिया, वह संतुष्ट हैट इसलिये लोग समझ समझाते marca हैं-बड़ी ब बातें भी कभी न नासमझी के आधार बन जाती है।।।।।
लोग कहते है, संतोष में ही सुख है। पागल है बिलकुल, उन्हें संतोष का पता ही नहीं, अभी भी वे सुख को ही संतोष के साथ एक कक क है सुख को! और वे जिसको समझा रहे है, इसलिये समझा रहे है कि अगर सुख चाहते हो तो संतोष रखो और जो सुख चाहता है वह संतुष्ट हो नहीं सकता क्योंकि सुख असंतोष का सूत्र है। जो चाहता है वह दुःख बचेग बचेगा ही, नहीं तो सुख चाह नहीं सकता। तो संतुष्ट कैसे होगा? सुख संतोष नहीं है। संतोष सुख नहीं है, संतोष सुख-दुःख के पार है। और संतुष्ट वही है, जिसने सुख-दुःख का भेद हॾ त्याग संतोष दोनों को अतिक्रमण करता है। इसलिये अग अगntas नियति, भाग्य, विधि, परम आध्यात्मिक शब्द है। व्यक्ति अहंकार से मुक्त हुआ, यह उनका प्रयोजन है, अस्मिता नहीं है।।।।।।।।।
इंद्रियां ही सुख और दुःख के कारण है। '' शब्द, स्प desse तब उप उपाधिग्रस्त जीवन कहते है।। '' शरीर में हूं मैं, लेकिन शरीरमें में होना एक बात है, शरी desse शरीर में हूं, ऐसा जो जानता है, वह आत्मा है, शरीर ही हूं, ऐसा जो जानता है, वह जीव है-उपाधिग्रस्त हो गया,भ्रम में पड़ गया, भूल में पड़, भ्रांति में पड़ गया, जो है, नहीं समझ रहा अपने को और जो नहीं है वह समझने लगा।
शरीर हूं मैं, यह क्यो पैदा हो जाता है? वही सुख-दुःख के कारण, क्योंकि जिससे सुख-दुःख मिलते, जब सुख-दुःख की— सुख आंक आंकाक्षा और दुःख से बचने का भाव प्रबल होता है। इसीलिये जिससे हमें मिलता है उससे हम अपने को एक कक लेते है। जिससे दुःख मिलता हो, उससे बड़ा फासला करते है, उससे बचते है, उसे देखना भी नहीं चाहते, उसके पास नहीं होना चाहते, जिससे दुःख मिलता है उसे हम दूर करना चाहते है, जिससे सुख मिलता है उसे हम पास करना चाहते है। अब यह बहुत की बात है, जब हमें हमें मिलता है तो हम समझते है हम हमारे शरीर से ह हा है औ औ जब भी दुःख मिलत मिलत मिलत हम हम समझते वह औ है जब भी भी भी दुःख दुःख दुःख मिलत मिलत मिलत हम समझते है वह दूस है के श भी भी दुःख दुःख दुःख मिलत मिलत मिलत हम समझते वह दूस है के श भी भी भी दुःख दुःख दुःख मिलत मिलत मिलत है हम है वह दूस है के श भी भी भी दुःख दुःख दुःख मिलत मिलत मिलत हम समझते वह दूस औ के श भी भी भी भी दुःख दुःख मिलत मिलत मिलत हम समझते वह दूस औ के श भी भी भी दुःख दुःख मिलत मिलत pos यह बहुत मजे का मामला है। यह बहुत ही मजे का राज है। जब भी हमें मिलता है तो हम समझते हम हमारे शरीर से मिल हा है।।।।।।।।।। सुख के लिये कभी किसी दूसदूस को जिम जिम्मेवार नहीं ठहराते, सुख के लिये सद सदा स्वयं ही जिम्मेवार होते है, और दुःख के लिये हम सदा दूसरे को जिम जिमजिमार ठह दुःख के के हम सदा दूसरे को जिम्मेवार ठह ठह के के के।।।।। को जिम gre
Inte इसीलिये कोई आदमी यह नही पूछता कि संसार में ोुख क् मुझसे लोग आकर पूछते है, संसार में इतना दुःह क्यो? अभी मुझे एक आदमी मिल मिला जिसने आकआक पूछा हो कि संसार में इतना सुख क्यों है? उसको तो म मानता ही है कि अधिकारी है, उसमें कोई पूछने का सवाल ही नहीं नहीं टेकन फॉ फॉर ग्रांटेड होना ही चाहिये, ऐसा है। दुःख क्यों है यह सवाल है। कोई मुझसे आकर नहीं पूछता कि आदमी जीता क्यो है? लोग पूछते है कि आदमी मरता क्यों है, मृत्यु ै्यों? जीवन तो होना ही चाहिये? लेकिन मृत्यु क्यों? ऐसा लगता है कि जीवन तो हमारे भीतर है, मृत्यु कहीं बाहर से आती है।। तो मृत्यु को हम सदा दूर सोचते है— कहीं बाहर से आती है और हमको मार डालती है और जीवन हम है और मृत्यु कही बाहर है-कभी बीमारी की शक्ल में आती है, कभी जर्म्स की शक्ल में आती है, कभी दुश्मन की शक्ल में आती है, लेकिन है बाहर। आती है और हमको मार डालती है-इससे कैसे बचे? और हम है जीवन।
Linha इसीलिये धर्मो को ईश्वर के साथ-साथ शैतान की कल कल्पना करनी पड़ती है।।।।।। यह सब कठिनाई इसी तर्क के कारण यह उपद्रव पैदा होता है कि बिना शैतान के को समझ समझाना बहुत मुश्किल मालूम पड़ता है।। भगवान दयालु है समझ में आता है। लेकिन फिर एक छोटा सा बच्चा कैन्सर से मर जाता है, तो अब क्या करे? कि बच बच्चे ने न अभी प पाप किया, न अभी इसने चो चोरी की, न हत्या की, न कुछ किया और यह कैन्सर से मर गया! यह मरा हुआ ही पैदा हुआ। अगर मरा हुआ पैद पैदा होना था, तो भगव भगवान ने पैद पैदा ही किसलिये क्या? जब मरा हुआ ही पैदा करना था तो यह नासमझी क्यों की? याने कम से भगव भगवान को इतन इतना पता होना ही चाहिये म मरा हुआ पैद पैदा होगा, तो यह पैदा करने का उपद्रव क्यो करना?
हमें दूस दूसरा व्यक्तित्व खोजना पड़ता है, क्योंकि भगवान से हम अपने को जोड़ना चाहते है। अगर भगवान भी ऐसा करता है कि बच्चो को कैन्सर दे देता है, बूढे़ मरना चाहते है और मर नही सकते, घसिटते रहते है, सड़ते रहते है, करोड़ों लोग भूखे है, रोज युद्ध होता है, लाखों लोग मरते है, कटते है। अगर भगवान को भी यह सब कुछ है फि फि हम भगवान से अपने को नहीं क क पायेंगे।।। इसलिये भगवान को हमें बिलकुल अच्छा बनाकर ़खना पड़खना पड़खना पड अब यह बुरा कहां जाये? यह कौन कर रहा है? तो इसके लिये एक दूसरा भगवान पैदा करना पड़ता है। उसको हम शैतान कहते है। वह बुराई का भगवान है। वह करवा रहा है। डेविल-वह यह सब काम कर रहा हैं
हिन्दू धर्म एकमात्र धर्म है पृथ्वी पर, जिसने प परमात्मा में दोनों को खने की हिम हिम्मत की-सिर्फ। इसीलिये म मानता हूँ, कि हिन्दु, जितने गहरे जा सके है जीवन के सत्य को समझने, उतना कोई नहीं ज जा सका। जिसे हिंदुओं ने 'महादेव' कहा है, 'शिव' कहा है, उसे दोनों एकसाथ कहा है-बनानेवाला भी, मिटानेवाला भी --- वही।।।।।।।।।।।।।।।। वही— जहर भी, अमृत भी-एक। बड़ी हिम्मत की बात है यह कहनी और ऐसे भगवान के साथ अपने को एक समझना बड़ी क्रांति है, क्योंकि हमारा सारा तर्क गिर जायेगा वह जो तर्क है हमारा अच्छे को अपने साथ जोड़ने का और बुरे को कहीं और हटा देने का, वह तर्क गिर जायेगा । अगर आप चोरी करते है तो आप कहते है शैतान ने करवायी और अगर प्रारleoXNUMX करते औ तो क कर प्रारleoxas क क तो क क कntas! बहुत मजेदार आदमी है! अगर दान देते तो आप आप हे हे है औ चोntas
भले से हम अपने को जोड़ना चाहते है, बुरे से नहीं। लेकिन जगत दोनों का जोड़ है। या तो दोनों को इनकार कर दो या दोनों को स्वीकार कर लो- दोनों हालतों में दोनों से मुक्ति हो जाती है ह।।। ज ज ज लो है है। है ज ज मुक मुक मुक मुक ज ज ज ज ज ज मुक मुक मुक मुक मुक मुक मुक मुक मुक ज ज- इस शरीर के साथ हमारा बंधन इसलिये निर्मित हो जाता है कि हम कहते है, सुख इससे मिलता है, दुःख कोई दूसरे देते है।। सुख इससे मिलता है, इसलिये दूसरों से बचो, या दूसरों को बदलते जाओ, या जब तक दूसरे सुख देते मालूम पड़ते है तब तक उनके साथ रहो, जब दुःख देते मालूम पड़ते है तो उनसे हट जाओ। विवाह और तलाक की सारी व्यवस्था पति और पत्नी के बीच ही नहीं है, सभी संबंधों में है।।। के बीच ही है, सभी संबंधों में है।
एक मित्र मेरे पास आते थे, सदा आकर कहते थे मे मेरी बुद्धि कैसे विकसित हो, वे कैसे जागे? मैं उनको कहता था, जागेगा, संभावना है, प्रयासकरावना है, प्रयासकरने्रयासकरनेिनेासकरनेिनेासकरनेिनेासकरनेिनेिने बड़े खुश लौटते थे-संभावना से, जागता-वागता नहीं संभावना से, जगाना पड़ता है, लेकिन बडे़ खुश थे।।।।।।। पड़त पड़ता है, लेकिन बडे़ खुश थे।।।।। यह भी काफी उनकी प्रसन्नता थी। महीने-पन्द्रह दिन में आकर मुझसे वे यह सुन ड़ाते थ इससे उनको फिर से गति मिल जाती थी दस-पन्द्रह दिन वैसे ही रहने की, जैसे वे सदा से रहे है- यह भरोसा कि संभावना है, पन्द्रह दिन से फिर इस भरोसे में गुजार देते। काफी दिन चल चला, मैंने कहा कि अब यह संभावना तो व वास्तविक भी बन नहीं सकती इस से।। व व व व व व व व व व व व व व एक दिन आये तो मैंने कहा कि अब यह कोई संभावना नहीं? कहा, कोई भी संभावना नहीं, बुद्धि तुम में है नहीं, जो विकसित हो सके औ औ औ विवेक आस आसान बात? तुम्हारे बस की नहीं, तुम छोड़ो यह ख्याल। एकदम चेहरे पर से उनका रंग उड़ गया, बड़े दुःॖी लौट अब मेरे खिलाफ हो गये है कि यह आदमी ठीक नहीं है। तब तक मैं ठीक था, जब तक कहता था, संभावना है। प्रसन्न होकर वे लौटते थे-प्रफुल्लित— गद्गद्! अब मैं बुरा हो गया हूँ।
यह बड़े मजे ब बात है, मैं तब ठीक थ थ थ जब तक सुखद था और जब तक में थ थ थ तब वे वे अपने को ही श्रेष्ठ मान हे हे क क को संभ शावन श श gre अब मैं दुःखद हो गया, क्योंकि मैंने कहा कि नहीं, कुछ उपाय है नहीं तुम्हारे साथ, तुम्हारा तर्क निश्चित है हम उससे अपने को जोड़ना चाहते है, जिससे हमें लगता है, सुख मिल रहा है, उससे हम अपने को एक मानने लगते है, जिससे दुःख मिल रहा है, उससे हम अपने को तोड़ना चाहते है और चूंकि हम अपने शरीर को समझते है कि इससे सुख मिल रहा है, हम शरीर के साथ बंध जाते है।
आत्मा जब शरीर को समझने लगती कि मैं श शरीर ही हूं तो ही उप उपाधि, बीमारी, द वेरी डिजीज, द ओनली डिजीज-एकमात्री pos. यही है उपाधि, यही है बीमारी। इस बीमारी से छुटने का एक ही उपाय है– कि शरीर से सुख भी मिलता है तो दुःख भी मिलता है-इस पूरे सत्य को देख लें— तो सुख और दुःख एक दूसरें को काट देंगे, और आपको लगेगा कि अब हम उसकी तलाश करे, जिससे न दुःख मिलता, न सुख मिलता, जिससे आनं० ८िलता आनंद न दुःख है, न सुख, आनंद दोनों का अभाव है। उस खोज पर हम निकलें।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
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