Linha हमारी भारतीय संस्कृति व मानक सिद्धांत, जो संस्कारों के बल पर सुदृढ़ हुए हैं, मानव-समाज को आचार-विचार के महत्व की सीख देते हैं, इसीलिये हमारे ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के सांसारिक जीवन के संस्कारों, विद्या-ग्रहण, उपनयन, विवाह , पारिवारिक एवं सामाजिक कर्तव्य का बोध संस्कार-ग्रहण तदनंतर मृत्यु के संस्कारों-अंत्येष्टि आदि का वर्णन किया है है सभी संस संस्कारों का जीवन पू पूर्ण औचित्य और महत्त्व है।
हमारे देश में प्रचलित धारणा है कि कुछ संस्कार जन्मजात होते हैं, जिन पर पूर्वजन्म की छाप होती। जिन इसी कारण कुछ बालकों में महापुussão उन्हें क्या बनना है- उसके लक्षण स्पष्ट दिखने लगते हैं, फिर समुचित वातावरण एवं परिवेश रूपी आलोक पाकर उनकी प्रतिभा कमल की भांति पूर्णरूपेण जाग्रत हो जाती है। इसीलिये हमारे समाज में संस्कार प्रदान करने की प्रक्रिया रही है ताकि यह जन्म तो सुधरे ही जन्मांतर भी उत्तम प्रारब्ध बनकर प्राप्त हो। संस्कार हमारे मन पर मनोवैज्ञानिक असर भी डालते हैं, साथ ही साथ हमें कर्तव्यनिष्ठ एवं धर्मपरायण भीाते क हैं।।
एक सम्राट के marca के दू दूदू आगे साधारण-सादे वस्त्र में मह महात्मा जा हे वस थे थे।। O que fazer? ऐसा समझकर एक सैनिक मह महात्मा के पास पहुँचा, बोला- 'हटो marca र्ते से, देखते नहीं सम्राट की सवारी आ ही है है?' Linha महात्मा की इस हठ की शिकायत अंगरक्षक ने सम्राट से सम्राट से सम्राट को बहुत क्रोध आया। रथ महात्मा के पास पहुँच चुका था। सम्राट ने कहा- 'हटो सामने से कौन हो तुम?' महात्मा ने विस्मित भाव से कहा- मैं सम्राट हूं। यह बात सुनकर सम्राट को औऔ अधिक क्रोध आ गया, वह बोला साधारण वस्त्रें में प प्रकार नंगे पांव सड़क पntas चलने वाला व्रक्ति नंगे पांव सड़क प पntas
महात्मा ने कहा- कीमती वस्त्रें से सुसज्जित, स्व desse सम्राट तो वह है, जिसका चित विकार रहित हो, जो अहंकार विहीन हो, जिसमें सब के प्रति श्रद्धा भाव है, जो संयम, विवेक द्वारा पूर्णरूपेण अनुशासित और सुसंस्कृत हो। जिसे स्वयं पर अनुशासन नहीं, वह किसी र र किसी र र र र र किसी वह वह वह वह वह किसी र र र किसी वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वह वहgre? महात्मा की बात सुनकर सम्राट नतमस्तक हो गया।
निष्कर्ष यह है कि जीवन यज यज्ञ है, संस्कार इस यज्ञ के आधार हैं, किन्तु साधना और संकल्प इस यज्ञ कीर्णताहैा। Linha मानव-शरीर अनुशासित-प्रक्रिया का जीवंत सैवरूप हैवरूप ह अनुशासन और संतुलन में संबंध है। जिस प्रकार जरा-सा संतुलन प प ded शरीरोगग्रस्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकार संस्कारों के अभाव में हमा conseguir Linha Linha दुर्गुणों से ग्रस्त अर्थात् संस्कार-हीन मनुष्य का अनुशासन-विहीन होाना स्वाभाविक है औ ded.
संस्कार से मनुष्य में योग्यता आती है। मनुष्य जीव के रूप में जन्म लेता है। Linha वह जीवन जीने की प्रक्रिया प्रारम्भ करता है। लेकिन एक व्यवस्थित जीवन जीने, सार्थक जीवन जीने के जीवन-प्रक्रिया को निखारने की जरू desse संस्कार-प्राप्ति का वह पल उसके ज्ञान-जगत् का पल जगत् का पल किन्तु संस्कार-प्राप्ति ही पर्याप्त नहीं है, अपितु प्राप्त -संस्कार के अनुरूप साधना भी आवश्यक है।।।।। है है है साधना ही व्यक्ति के जीवन को निखारती है।
Linha तेजोमय संस्कार के सद्गुणों के आलोक से ही जगत जगत् के को दू दूर करना संभव है।।।।।। सिसि सि सि सि आदमी ही ऐस ऐस ऐस जीव जीव, जो ोते ोते हुए पैदा होता है, शिकायतें करते हुए जीता है औऔ हntas सब कुछ होने के बाद और पूर्णरूपेण भोग-विलास में लिप्त रहने के बाद भी हम 'प्रभु' से मांगते रहते हैं, मांगने की प्रवृति बनी रहती है- पता नहीं, हमारी यह मांगने की आदत छूटेगी या नहीं। इससे तो अच अच्छे हैं, जिन्हें कभी किसी गिल गिला शिकवा नहीं होता। बीज से वृक वृक्ष बनता है, जैसा बीज होगा, वैसा ही वृक्ष होगा, हम प्रकृति के नियमों को बदल सकते।।। जैसा आचार-विचार व्यवहार हम करेंगे, हमें उसी के अनुसार फल मिलता है।।।।।।
यह शरीर किसका है? इस शरीर पर किसका अधिकार है- यह शरीर क्या पिता का है, माता का है या अपना स्वयं का है? 'पिता कहता है कि यह मुझसे उत्पन्न हुआ है, इसलिये इस शरीर पर मेरा अधिकार है।' 'मां कहती है कि' मेरे गर्भ से उत उत्पन्न हुआ 'इसलिये यह मे मेntas मे उत उत' 'पत्नी कहती कि कि' इसके लिए मैं अपने माता-पिता को छोड़कछोड़क आयी हूं, अतः इस पर मेरा अधिकार है। इससे मेरी शादी हुई है, मैं इसका आधा अंग बनी हूं, इसलिये मे मेरा है। '' 'अग्नि कहती है कि यदि शरीर पर माता-पिता, पत्नी का अधिकार होता तो प्राण जाने के बाद वे इसे घर में ही क्यों नहीं रखते? इस शरीर को श्मसान पर लाकर लोग इसे अ अर्पण करते हैं, इसलिये इस पर मेरा अधिकार है।। ' 'इस तरह सभी इस शरीर पर अपना-अपना अधिकार बतलॾते हैंॾते हैंॾते हैंॾते
प्रभु कहते हैं, 'यह शरीर किसी का नहीं है। मैंने इस जीव को अपना उद्धार करने के लिये दिया है। यह शरीर मेरा है।
संसार में दुखों का प्रधान कारण मोह है। ना मालूम कितने लोग प्रतिदिन मरते हैं और कितने लोगों के धन का नित्य नाश होता हैं, पर हम किसी के लिये नहीं रोते, किन्तु यदि अपने यहां कोई व्यक्ति मर जाय या अपना कुछ धन नष्ट हो जाय तो शोक होता है। इसका कारण मोह ही है। हमारा एक मकान है, यदि कोई आदमी उसकी एक निक निकाल लेता है तो हमें बहुत बुरा लगता है। हमने उस मकान को बेच दिया और उसकी कीमत का चेक ले लिा चेक ले लिा चेक ले लि अब मक मकान की-एक ईंट स सारा मोह निकलक हमारी जेब में खे खे हुए उस बैंक के चेक में गय गय में। खे खे हुए उस बैंक चेक में आ गया।
अब चाहे मकान में आग लग जाय, हमें कोई चिन्ता नहीं। चिन्ता है उस कागज के चेक की। बैंक में गये चेक के रूपये हमारे खाते में जमा हो गें जमा हो गयमा हो ग अब भले ही बैंक लिपिक उस कागज के चेक के टुकड़े फ फाड़ डाले, हमें चिन्ता नहीं। अब उस बैंक की चिन्ता है कि कहीं बाऊन्स ना ।ो जाये।ो जायेे क्योंकि हमारे रूपये जमा हैं। इस प्रकार जहां मोह है, वहीं शोक है, यदि हमारा सारा मोह सद्गुरू में अर्पित हो जाय, फिर शोक का जरा-सा भी काण न न फि शोक का जरा-सा भी कारण न फि।। क का जा-सundo भी कारण न हे।। क का जा-सril भक्त तो सर्वस्व अपने प्रभु को अर्पण कर उनको अपना बना लेते हैं और स्वयं उनका बन जाते हैं। उसमें दूस दूसntas सर्वदा आनन्द में मग्न रहता है।
हम केवल च चाहते हैं, मगर हमारे सुख प परिभाषा केवल धन प्राप्ति है, धन ज जाय सुखी हो जायेंगे। Linha धन का सदुपयोग करना जान जाये तो सुख अवश्य मिलेगा॥ सरल हृदय, अच्छा व्यवहार, सबका सत्कार, सीमित आवश्यकताएं, सात्विक आहार, परोपकार, समाज और देश प्रेम से हम महान्, श्रद्धावान एवं धनवान बन सकते हैं।
ame sua mãe
Shobha Shrimali
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