शिष्य का जीवन गुरू से जुड़ कर ही पूर्ण बनता है, जीवन की यात्रा तो संसार में जिसने भी जन्म लिया है वह करता ही है लेकिन कितने व्यक्ति इस जीवन में पूर्णता प्राप्त करते हैं, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। सद्गुरूदेव जी ने इस प्रवचन में शिष्य धर्म की पहचान तो स्पष्ट की है, साथ ही जीवन जीने की कला को अपने विशिष्ट भाव प्रवाह वाणी में स्पष्ट किया है उसी प्रवचन का सारांश-यह श्लोक वशिष्ठोपनिषद से लिया गया है और उसमें गुरू और शिष्य का एक विशेष वर्णन आया है।
Linha
चित्रं मया पूर्ण मदीव नित्यं, विश्वो ही विश विश्वेठवनंजं ।।
इस श्लोक में ऋषि वशिष्ठ ने कहा है, कि जीवन में कई लाख योनियां भटकने के बाद में यह मनुष्य शरीर मिलता है और आप सब मनुष्य हैं, चाहे 5 वर्ष के हैं, चाहे 30 वर्ष के हैं, चाहे 100 वर्ष के हैं। उसमें पंक पंक्ति में कहा है कि 'गुरू' हमार जाति, गुरू हमार गोत्र। Vers Linha क्योंकि 'जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात द्व्जउचात द्व्जउच्वऍजउचय मां-बाप ने जो जन्म दिया वह तो एक शूद्रवत जि्म दिया्म दिया्म शूद्र का मतलब ज जाति विशेष से नहीं है, जिसको मल का, मूत्र का, शुद्धता का, अशुद्धता का भान नहीं वह वह शूद्र है Inte
प्रत्येक व्यक्ति जब जन्म लेता है तो शूद्र के ूप में होता है, इसलिये की उसको ज्ञान नहीं होता कि मैं मल में पड़ पड़ हुआ य यान मूत होत pos मां उसको स्वच्छ करती है, बाकि उसी हाथ से वह अपने किसी शरीर के अंग को जो मल में भरा होता है— जो 4 महीने का, छह महीने का बालक होता है वही वापस मुंह में लगा लेता है और उसी पलंग पर जहां वह लेटा हुआ है मूत मूत्र कर लेता है, मल क लेता है औ औ उसी प पा हता marca है लेत लेत।।
उसको इस बात का ज्ञान नहीं होता कि क क्या हूं औऔ जब वह गु गुntas उसको समझ समझाते हैं कि यह उचित है, वह अनुचित औ औऔ आज तुम मे मेntas तो संस्कारात द्विज, द्विज का मतलब है, दूसरी बार जन्म लेने वाला। द्विज— 'ज' जन्म लेने वाला, तथा 'द्वि' दूसरी बार।
परिवार ने उसको एक बार जन्म दिया, वह तो मां-बाप ने एक संयोगवश दे दिया, कोई प्लान नहीं था, कोई प्लानिंग नहीं थी उनकी, कोई मन में ऐसी भावना नहीं थी कि मुझे एक श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न करना है। वह तो प्रकृति की एक लीला थी और कुछ व्यक्ति और अधिकांश व्यक्ति उसी प्रकार से जन्म देकर समाप्त हो जाते हैं- चाहे वह हमारी मां हो, बाप हो, भाई हो, बहन हो, पड़ोसी हो या रिश्तेदार हो। फिर संस्कार जब मिलता है, तो संस्कार के कारण वापिस से उसका जन्म होता है। तब उसको भान होता है कि मेरे जीवन का लक्ष्य, मेरे जीवन का कर्त्तव्य क्या है, उद्देश्य क्या है, चिन्तन क्या है और मुझे किस जगह पहुँचना है क्योंकि जिस शरीर को हम सब कुछ समझ बैठते हैं, जो भाग्य पदार्थ, हम सब ध्येय मान लेते हैं- चाहे पान खाना हो या मिठाई खाना हो। Linha सुबह हम देखन देखना भी च चाहते, इतनी गन्दी और घृणित होती है।।। ये शरीर अपने आप में कोई सुगन्धमय नहीं बना क्योंकि हमने जो कुछ भी फल खाये, सेब खाये, अनार खाये, केले खाये, या मिठाई खायी या रोटी खायी ये सब अपने आप में विष्ठा में परिणित हो जाते हैं। para पशु भी अच अच्छे हैं, गाय घास खाकर भी दूध उत्पन्न कर लेती है, हम मिठाई खाकर भी विष्ठा उत्पन्न करते हैं।।। क्योंकि हमारा पूरा शरीर अपने आप में शूद्॰मय शरीशरी
ब्राह्मणमय शरीर बने वशिष्ठ कहते हैं। यही क का उद्देश्य है, यही जीवन का धर्म, यही क का लक्ष्य होना चाहिये। यदि ऐसा नहीं है, तो शूद्र बन कक भी जीवन व्यतीत किया जाता है।।। उसको कोई रोकता नहीं है। उस जीवन में आनन्द नहीं है, उस जीवन में सुख नहीं है, उस जीवन में तृप्ति नहीं है और यदि आप उत्तम कोटि के वस्त्र पहन भी लेंगे तब भी चार महीने बाद फट कर के पोछा बन जायेगा या बाहर फेंक देंगे।
इस शरीर को यदि च चार पांच दिन तक धोयेंगे नहीं यह श शरीर दुर्गन्धमय बन जायेगा। आप चाहे कितना ही पाउडर, लिपस्टिक, क्रीम लगाये तब श शरीर पर झुर्रियां पड़ ज जायेंगी।। इसी शरीर को भगवान का देवालय कहा है मन्दिर कहा है। 'शरीरं शुद्धं रक्षेत देवालय देवापि च'। ये भगवान का मन्दिर है। जहां भगवान का एक मन्दिर हो, उसमें बाहर एक चार दीवारी होती है, चार दीवारी के अन्दर एक कमरा होता है, कमरे के अन्दर एक और कमरा, उसके अन्दर भगवान की मूर्ति का स्थापन किया जाता है, ठीक उसी प्रकार से अन्दर एक ईश्वर है और ईश्वर के बाहर एक शरीर है, शरीर हड्डियों का ढ़ा फिर यह चमड़ी ऐसी है जैसे चार दीवारी हो और ये चार दीवारी टूट जाती है तो भी पशु अन्दर घुस सकता है, कि हमें हर क्षण यह ध्यान रहे कि अन्दर मूल मन्दिर में भगवान बैठे हुए हैं या जिनको हमने गुरू कहा है।
गुगु अपने आप में कोई मनुष्य नहीं, यदि हम किसी मनुष्य को गुरू मानते हैं तो वह हमारी न्यूनता है।।। एक क्षण ऐसा आता है, कि
Aquele que é Shiva é considerado Guru, e aquele que é Guru é lembrado como Shiva
Por sua diferença de sentimento, ele vai para o caminho do inferno.
यह शिव है वही गुरू है। यह गुरू है वही शिव हैं। शिव यानी कल्याण करने वाला, सत्यं शिवं सुन्दरम्। जो हमारा कल्याण कर सकें। जो इसमें भेद मानता है, वह अधम है। गुगु औ औ शिव में हत हत है गु गु जब हम शूद शूद l शूद शूद शूद हैं हैं तक हत desse जब दर्शन करने लग जाते हैं ब ब्राह्मण वृत्ति की ओर बढ़ने लग जाते हैं।।।। तब इस बात का भान नहीं रहता कि हम घर में सूखी रोटी खा रहे हैं या घी चुपड़ा हुआ है या नहीं या पुड़ी, या सब्जी है, या मिठाई है या फल है क्योंकि वह तो सब अपने आप में एक ही चीज में कन्वर्ट होती है , रूपान्तर होती है। इसलिए वह भेद तो मिट जाता है। जो उसी में लिप्त रहता है वह शूद्र ही रहता है। जब प परे हट जाता है कि जो कुछ ज जाता है प्रभु का प्रसाद है उसको उसको स्वीका marca साधु तो केवल जंगली फल और हवा, वायु और जल इनका सेवन करके भी अपने आप में तेजस्वी बने रहे और हम उत्तम कोटी के भोज्य पदार्थ खाने के बाद भी 60 वर्ष की अवस्था में मर गये, क्योंकि हमारे हृदय में वह चिंतन नहीं था और जिनके हृदय में चिंतन आ जाता है कि हमारा जीवन 'त्वदीयं वस्तु गोविन्दं, तुभ्य मेवं समर्पयेत' ये आपकी दी हुई चीज है, क्योंकि आपने हमें पुनः जन्म दिया है, आपने हमें वापिस संस्कार सिखाया है और 'तुभ्य मेवं समर्पयेत' इसीलिये आपको समर्पित है। आप इसका जैसा उपयोग करना चाहें, करें। आप लिखने के लिये उपयोग चाहें, झाडू निकालने का उपयोग करना चाहें, या आपकी इच्छा है जो देने की इच्छा है, जो आप चाहते हैं, मेरी कोई भावना नहीं है, कि मैं झाडू निकालू तो छोटा हो जाऊंगा या लिखूंगा तो बहुत बड़ा हो जाऊंगा । मेरा तो उद्देश्य, मेरा लक्ष्य वही है कि आपने क काम सौंपा मुझे वह पूरा करना है।।। इसलिए शिष्य को गुरू के हाथ, गुरू के पैपै, गुरू की आंख, गुरू का मस्तिष्क कहा गया है।।।। क्योंकि गुरू अपने आप में स सागर बिम्ब नहीं है, निराकार को एक मूर्ति का आकार दिया गया है।। ये सारे शिष्य मिलकर के एक गुरूत्वमय बनता है, एक आकार बनता है।।।।।। इसलिये अगर मैं घमण्ड करूं कि गु गुगु हूं हूं, यह मेरा घमण्ड व्यर्थ है।
क्योंकि हम विकार ग्रस्त हैं। Linha क्योंकि एकदम ध्यान लगता नहीं तो उस जगदम्बा की मूर्ति को देखते हैं कि अच्छा ऐसी जगदम्बा है।। यह प्रतीक मान कर ध्यान लग जाता है। ये सगुण रूप है, आगे जा करके व्यक्ति, निर्गुण रूप में आ जाता है, उसके सामने मूर्ति, चित्र या बिम्ब कुछ होता ही नहीं केवल एक ज्योति होती है, उस ज्योति में वह गुरू के दर्शन करता रहता है। फिर ये सारे उपाय-उपकरण अपने आप में व्यर्थ हो ज।तजॾतथ फिर उसका भी अपने में में शरीर के प्रति कोई गर्व या घमण्ड नहीं होता। O, यह धारणा बननी चाहिये, यह विचार आना चाहिये, कि बहुत कम समय है हमारे जीवन में और केवल आधा घंटा भी हम गुरू को दे पायें तो यह श्रेष्ठता है। जीवन के बाकी तो क कार्य करने ही औ और गुरू कार्य में हमारा कोई स्वार्थ नहीं, कोई लक लक्ष्य नहीं स।।।।।
स्वार्थ तो क कntas वहां स्वार्थ है। मनुष्य अपनी रोटी निकाल कर सामने वाले को दे देता तुम खाओ ये छोटी रोटी मैं खा लेता हूं। तुम अच्छी सब्जी खाओ मैं कम खा लेता हूं। Linha महत्व इतना है कि हमारा शरीर टूटे नहीं, बिखरे नहीं, खायेंगें नहीं तो शरीर बिखर जायेंगा, भोजन नहीं करेंगे तो शरीर कमजोर हो जायेंगा और कमजोर हो जाएगा तो चार दीवारी टूट जायेगी तो उस मन्दिर में अन्दर कोई बदमाश, कोई घटिया आदमी, कोई पशु घुस जायेगा। इस चार दीवारी को सुरक्षित रखना, स्वस्थ रखीा जरूरीा जरूरीा जरूर इसकी ईट कोई खिसके नहीं, यह शरीर कमजोर बने मग मगर शरीर को बन बनाने के लिए उत्तम भोज्य पदा conseguir मिल जाये तो ठीक नहीं मिलें तो ठीक, पलंग मिला तो ठीक नहीं मिला तो ठीक है।।।।।। ऐसी जब मन भावना आती है औऔ जब वह धारणा बनती है, तो क क्षण के बाद में समाधि की अवस्था जाती ब है। तब हम बैठते तो हमारी आँखों स सामने गुरू का बिम्ब बिल्कुल साकार स्पष्ट हो जाता है, वह चाहे हजार मील दूदू दू ज जा है है वह चाहे हजार मील दू दूntas
ऋषि वशिष्ठ के उपनिषद् में कहा है कि ऐसा तो शिष्य पैदा ही नहीं हुआ, हो ही नहीं सकता, शिष्य नहीं कहला सकता क्योंकि सबसे पहले तो एक व्यक्ति होता है, एक लड़का होता है, एक बालक होता है, जो गुरू के पास आता है , उससे मिलता है, जुड़ता है और आते ही उसने गुरू दीक्षा ले ली शिष शिष्य नहीं गय गया। दीक्षा ली है, उसके बाद में वह जिज्ञासु बनता है। उसके मन में होता है कि यह गुरू है कि नहीं है, मतलब एक तर्क विर्तक पैदा होता रहता है, यह कैसा गुरू है, यह खुद भी कभी-कभी उदास हो जाते हैं, कभी-कभी रोने लग जाते हैं, गुरू तो रोता नहीं । ये कभी-कभी उदास हो जाते हैं, कभी-कभी विचलित जाते हैं, हमें तो कहते हैं कि प प प सोओ ये खुद पलंग प प लेटते हैं।।। प प सोओ तो पलंग प प प हैं।।।।। तो यह गुरू कैसे हो गये? ये मे मेरे सामने केले खा marca थे, तो क्या यह गुरू है भी कि नहीं है।।।।।।।।। इनको हम गुरू मानें कि नहीं मानें? ये तर्क वितर्क पैदा होता है, तर्क वितर्क चलता marca है, शिष्य नहीं जिज जिज्ञासु कहलाता है। उसको जिज्ञासा होती है ये सही है, गलत है। उस क कntas ये सब जिज्ञासा होती है, जिज्ञासा वृत्ति का मतलब है कि अभी तक हममें मनुष्यत्व आया नहीं है, शिष्यत्व तो की की बात है। अभी मनुष्य वह बना नहीं, अभी जिज्ञासा है, तर्क वितर्क है, संदेह है, भ्रम है। और यह संदेह, यह भ्रम आपके खून में हैं। यह तर्क वितर्क से भरा है क्योंकि उनके मन में ऐसा विचार था, ऐसा चिन्तन था। उन्होंने कभी इस प्रकार का चिन्तन किया ही नहीं। उनके जीवन ऐस ऐसा कोई गुरू मिला ही नहीं, उनको ऐस ऐसा marcaस्ता दिखाने वाला मिला ही नहीं।।।।।।।। तो वह भ्रम, वह संदेह, वो न्यूनता हमें देते गये। उस परिवेश, उस वातावuto इसलिये पहले कह कहा कि 'गुरू हमारी जाति है अब पु पुरानी जाति नहीं marca'। गुरू हमारा गोत्र है, हमारी वह वंश परंपरा भी नहीं जब ऐसा विचार आता है तो हम तर्क वितर्क समझ जाते है 'एकोहि वाक्यं गुरूम् स्व desse
इसलिये ऋषि वशिष्ठ कहते है, कि तर्क वितर्क से अगली जो स्टेज है, वह शिष्यत्व की स्टेज है और तर्क वितर्क से अगली स्टेज शिष्यत्व की तब बनती है जब गुरू जो करता है वैसा नहीं करें, जो गुरू कहे वैसा करे। दोनों में अंतर है। जो करे गुरू वैसा आप करेंगे तब गड़बड हो जायेंगे। गुगु किसी से किस ढंग ब बात करेंगे, किसी प प्रेम से बात करेंगे, किसी ड डांटेंगे, किसी प पास बैठेंगे, किसी प पास नहीं।। कृष्ण गोपियों प पास बैठते थे हम हमारा भ्रम, तर्क-वित desse ये तो बहुरूपिया है।
वही उद्धव को उपदेश देते हैं तो ज्ञानी कहलॾते हैंॾते हैंॾते हैंॾते वही व्यक्ति जब गीता का उपदेश देते है तो महान विद्वान कहलाते है।। वही दुर्योधन पर प्रहार करते है तो एकदम शत्रुवत व्यवहार होता है और हमारा तर्क वितर्क चलता रहता है कि जैसे अर्जुन के मन में संदेह पैदा होता रहा कि ये ईश्वर हैं भी कि नहीं है, ये गुरू है भी कि नहीं है। कृष्ण समझाते रहे कि तुम मुर्खता कर रहे हो। मैं हूं तुम्हारा ईश्वर। मैं तुम्हारा गुरू हूं। तुम मुझे सारथी समझ रहे हो, तुम मुझे मित्र समत रहे मै तुम्हारा मित्र नहीं हूं, सारथी नहीं हूं, मैं तो सम्पूर्ण ईश्वर हूं।।।।।। तो ये कोई घमण्ड नहीं कर रहा था। कृष्ण जब गीता में बता marca थे तुम तुम नहीं समझो तो यों समझो कि इतने सैंकड़ों सैंकड़ों हैं, उनमें मैं पीपल का पेड़ हूं, क्योंकि वह l पवित्र है, मुझे पीपल का पेड़ समझो क क l वह पवित्र है, मुझे पीपल का पेड़ समझो।। हजारों नदियां हैं तो यों समझो कि मैं गंगा नदी हू तुम त तntas जब भ्रम मिट जाएगा तो मुझमें तुम एकाकार हो जाओगे।
इसीलिये मैं क करता हूं वह तुम मत देखो, उसका अनुसरण तुम क करो। जो मैं उसक उसका तुम अनुसअनुस कntas कोई जरूरी नहीं है कि तीर फेंको। तुम केवल मेरी आज्ञा पालन करो। तुम मेरा अनुसरण मत करो, जो मैं करता हूं, उसी मतकरसइ इसलिये जब स स्थिति आाती है उन उन्होंने कहा और हमने किया वही शिष्यत्व है। उस समय क क्षण भी विलम्ब होता है तो समझना चाहिये शिष्यत्व में न्यूनता है।
गुरू कोई ऐसा आदेश देता भी नहीं, देता भी है गु गुगु नहीं है, गुरू की कसौटी है ऐस ऐसा कोई आदेश नहीं दे जो उसके सामर्थ्य के बाहह हो। गुरू कोई ऐसा आदेश नहीं दे जो स स्वार्थ के हो हो, गुरू कोई ऐसा आदेश ना दे जो अपने प्रू के ऐस।। शिष्य सोचे इस समय गुरू को क्या जरूरत है और इसलिये तीसरी पंक्ति में वशिष्ठ ने कहा है कि सैंकड़ों मील, हजारों मील बैठे हुये भी यदि गुरू के पैर में कांटा चुभता है और यहां दर्द होता है तो समझिये हम शिष्य हुये, यही कसौटी है। जब दूर बैठा हुआ व्यक्ति उदास है तो एकदम से उदासी छा जाती है कि कुछ अच्छा नहीं लगता घर में बैठे हुये भी, तब एहसास होता है कि कोई समस्या तो नहीं है, घर में तो सब ठीक है। पति बैठे हैं, पत्नी बैठी है, बल्कि खेल रहे हैं, मिठाई आ रही है और फिर भी उदासी छाई हुई है और जब ऐसी उदासी छाये, तो समझ लेना चाहिये कि जरूर मेरे साथ वहां से जुड़े हुए मेरे गुरू उदास हैं। जरूर कोई तनाव है उनको, जरूर कोई परेशानी है।
इसलिये कहते हैं, उनको कांटा चुभे और दर्द हमें होर ऐसा शिष्य हुआ क क्या कि गुरू marca में तड़पते हे हे और शिष्य को नींद ज जाये, उसे शिष्य कह नहीं। को को नींद ज जाये, उसे शिष्य कह नहीं। ऐसे कैसे हुआ गु गुरू marcaत में बीमार बुखार से तड़पता marca और तुम्हे नींद आती ही, तो तुम जुड़े नहीं, तुममें शिष्यत्व नहीं आया। क्योंकि अलग तो हो ही नहीं सकते। एक ज जाति, एक गोत गोत्र, एक प प्राण, एक चेतन चेतना, एक ही धड़कन।।।।।।। ऐसा तो हो ही नहीं सकता, पैर में कांटा चुभे और तकलीफ नहीं हो।।।।।।।।।।। कांटा यहां चुभेगा तो यहां तकलीफ होगी ही होगी। हृदय में तकलीफ होगी, वेदना होगी, इसलिये गुरू और शिष्य का एक ही शरीर होता है, दो तो दिखाई देते हैं परन्तु दो शरीर एक प्राण होता है, उन दोनो शरीर को मिला करके जो चित्र बनता है उसको गुरू कहा गया है।
चौथी पंक्ति में कहा गया है कि जिज जिज्ञासु वृत्ति समाप्त हो जाती है, तर्क-वितरach पर भी हो तब भी हर क्षण मेरे पास मे हैं। चलता हूं, उठता हूं, बैठता हूं, बात करता हूं, तो मे मेरे पास ही विचरण करहे हैं मे।। मैं खाता हूं तो वही खाना खिला रहे हैं, खा रहे हैं। वह ही पास में बैठे हैं। उनको तकलीफ है तो पहले मुझे तकलीफ है। उनको आंच आ ही ही तो मैं जल ह हा हूं, धूप में हैं तो मे मेntas वो शरीर जल्दी समाप्त हो जायेगा, तो ज्ञान वहां समाप्त हो जायेगा।
इसलिये ज ज्ञान और ज्यादा फैले इसलिये उसकी शरीर की क्षा करना भी शिष्य का धर्म है। अगर वह तनाव में marca तो कुछ क क नहीं पायेगा, लिख प पायेगा, कुछ ज्ञान चेतना नहीं प पायेगा। इसलिये उसके मस्तिष्क को जीवित रखना भी एक शिष्य का धर्म है, इसलिये शिष्य को आंख कहा गया है, नेत्र कहा गया है, हाथ कहा गया है, पांव कहा गया है। वह सब मिलकर के फिर जब नई स्थिति बनती है तब वह अपने आप चौथी अवस्था में, पूर्ण परमहंस अवस्था में आ जाता है, गुरूत्वमय अवस्था में आ जाता है, पूर्ण एकाकार हो जाता है, पूर्ण लीन हो जाता है और जैसा कहा गया है, कबीर ने कहा है कि- फूटा कुंभ जल, जल सम समाना यह कह कहा ग्यानी।
एक घड़े प पानी है, एक नदी में प पानी है और नदी अंद अंदअंद वह घड़ा है। इस संसार में आप हैं, एक गुरू के हृदय में हैं मग मग उस पानी और इस पानी में अन्तर है, क्योंकि वह के अन अन्दर बन्द है वह पड़ा-पड़ा पानी सड़ जायेगा। आज सड़ेग सड़ेगा घड़े का पानी तो पांच दिन बाद में कीटाणु पड़ जायेंगे। ज्योहि वह घड़ा फूटा जल-जल ही समाना, वह जल उस जल में मिल जाएगा। O, आपका जब मोह, जब आपकी माया, जब आपका भ्रम, जब आपका संदेह, जब आपका अप्रेम फूटेगा तभी, जल जल ही समान, आपका शरीर, आपका प्राण उनके प्राणों से जुड़ जायेंगे तो यही तथ्य कहा, चिंतन कहा इसलिये यही ज्ञान है, यही चेतना है।
यह ज्ञान जब हमारी चेतना में व्याप्त हो, तब इस शरीरीी से अपने आप में सुगन्ध -व्याप्त हो जाती है।।।।।।। फिर शरीर से बदबू नहीं आती इस शरीर से दुर्गन्ध नही फि कृष्ण के श श श फि अष अष कृष कृष gre निकलती वैसे उस उस व व व अष अष के गनरीntas अपने काम में लगा रहता है। एक अजीब खुम खुमारी है औऔ वो खुमारी तभी पायेगी, जब उसके अन्दर एक क्रिया बनेगी, जब अन अन्दर एक ज्योति प्रकाशित होगी। अपने आप में गुरू के जागरण की स्थिति बनेगी। अपने आप चेतन चेतना पैदा होगी औ औ ऐसी चेतना पैदा होने पप ही वह अपने आप में चौथी अवस्था में आकआक के गुरूत्वमय बनता है अवस।।।।। आक आक गु गुntas शिष्य आगे बढ़कर गुरू के साथ एकाकार हो जाता है। दीक्षा देते ही नहीं हो जाता। चौथी अवस्था में जा करके गुरूत्वमय बनता है। वशिष्ठ कह marca हैं प प्रत्येक व्यक्ति को चिन चिन्तन करना चाहिये कि मैं कहां पर खड़ा हूँ।।। च कि कि कहां पहली क्लास में खड़ा हूं या दसवीं प परीक्षा दे marca हूं या एम-ए- का एक्जाम उम्र का इसमें कोई बन्धन है नहीं। पांच साल के प्रहलाद को ज्ञान हो गया था और साठ साल के हिरण्यकश्यप को ज्ञान हुआ नहीं नहीं हिा। अस्सी साल के कंस को भी ज्ञान नहीं हुआ था। O,
जब आप गुरू के शरीर से, गुरू के आत्म से, गुरू के पांव ये घिसेंगे अपने आपको एकाकार कर सकेंगे, आप भी भी सुगन l व्यापात होगी ही होगी होगी आप भी भी सुगन्ध व्याप्त होगी ही होगी।। जब सुगन्ध व्याप्त होगी, तो खुम खुमारी आयेगी, एक मस्ती आयेगी।। फिर काम करते हुए थकेंगे नहीं आप। फिर आप को यह लगेगा कि मेरा शरीर, मेरा समय नष्ट हो रहा है, मैं और क्या काम करूं, कैसे करूं, कैसे बढ़ाऊं इस चेतना को इस ज्ञान को कैसे फैलाऊं, कैसे उसको उपयोग में लाऊं।
शिष्य को सोचन सोचना है कैसे मैं गुरू का विश्वास पात्र बन सकूं।।।।।।।। Linha यह क्रिया आसान भी है। आसान इसलिये है कि क क्षण आप पहला पांव आगे बढ़ा देंगे, तो दूसरा पांव स्वतः बढ़ जाएगा। दूसरा, तीसरा, आठवां, दसवां और एक दिन अपनी मंजिल तक पहुँच जायेंगे। मगर समय बहुत कम है उसमें बीस साल का गैप, पच्चीस साल का गैप, पन्द्रह साल का गैप नहीं ख ख सकते।।। सकते सकते पन पन पन पन पन पन पन पन पन क काल जितना जल्दी उस को प पार-कर लेंगे, वही हमारे जीवन की एक गति होगी, सुगति होगी, उन्नति होगी श्रेष्ठता होगी, पूर्णता होगी
हमारी केवल ईश्वर पर आश्रित होने की आदत पड़ गई हैत पड़ गई हैई यह बहुत बड़ी बात कही है उपनिषद् ने। बाकी सब शास्त्रें ने ईश्वर के अस्तित्व को माना ह इस उपनिषद्कार ने कहा कि हम स्वयं ब्रह्म हैं फि फिर विधाता कौन है? हम स्वयं विधाता हैं। इसलिए ब्रह्म की परिभाषा इस श्लोक में की है कि प पांच साल का प्रहल pos जो गुरू के समीप marca सकता है और गुरू के में प प्रवेश कर सकता है वह ब्रह्म है। यह श्लोक ने परिभाषा दी है। जो गुरू के हत रहता है शारीरिक ूप ूप य या आत्मिक ूप से वह ब l ब्रह्म है औऔ वह गुरू के हृदय ब प l प्रह कntas गुरू को भी प पर स्नेह marca, वह हेग marca जब आपका कार्य होगा, जब आप नजदीक होंगे, आप उनके आत्मीय होंगे।।।।।।। जब नजदीक होंगे, आप उनके आत्मीय होंगे।। इतने नजदीक कि आप उपनिषद् बन जायेंगे। आप उनके हृदय में उतर जायेंगे तब आप ब्रह्म बन जाए
ब्रह्म की व्याख्या ऋषि ने बिल्कुल नये तरीके से ल ब्रह्मचारी रहने को ब्रह्म नहीं कहा, शास्त्र पढ़ने वाले को ब्रह्म नहीं कहा गया और ऐसे सैकड़ों ऋषि हुए जिन्होंने विधिवत ज्ञान प्राप्त नहीं किया, स्कूल में नहीं पढ़े और उन्हें ब्रह्म कहा गया। Linha अपने अहंकार की वजह से, घमंड की वजह से, अलग धाराणाओं की वजह से ब्रह्म ऋषि नहीं कहला पाये और बहुत बाद में जब गुरू के हृदय में उतर सके तो ब्रह्म ऋषि कहलाये।
इसका तात्पर्य यह है कि गु गुntas कौन है। हजारों लाखों शिष्यों के नाम होठों पर नहीं खुदते और होठों पर नाम अंकित करने के लिए गुरू के हृदय में उतरना आवश्यक होता है और उसके लिए असीम प्यार की आवश्यकता होती है। समर्पण की आवश्यकता होती है और प्राणों से प्राण जुड़ने की जब क्रिया होती है तो प्राणों में उतरा जा सकता है, जब उसके बिना रह नहीं सके तो हृदय में उतरा जा सकता है। जिसके बिना संसार सूना-सा लगे उसके हृदय में उतरा जा सकता है।।।
हृदय उत उतरने के आपकी प परसनैलिटी, आपकी सुन्दरता, आपकी महानता, आपकी विद्वता, आपके ज्ञान वे सब अपने आप में हैं हैं। इसलिये श्वेताश्वेतरोपनिषद में भाग्य और दुर्भाग्य की बिल्कुल नयी व्याख्या की गयी।। बिल बिल बिल बिल उसमें सब कुछ आपके हाथ में सौंप दिया कि आप स्वंय ब्रह्मा हैं, आप स्वयं भाग्य निर्माता हैं, आप स्वयं दुर्भाग्य के निर्माता हैं, आप स्वयं उपनिषद्कार हैं आप स्वयं गुरू के हृदय में उतरने की क्षमता रखते हैं, सारी बागडोर आपके हाथ में सौंप दी उस उपनिषद्कार ने और मैं समझता हूं कि 108 उपनिषद्कारों में इसने बिल बिल्कुल यर्थात् चिंतन किया है।।।
यह श्लोक सोने के अक्षरों में लिखने के योग्य है। इसलिये कि पहली बार एहसास हुआ कि स सामान्य मनुष्य नहीं हैं, हम स्वयं नियंता हैं, निमार्णकर्ता हैं स।।। मैं बहुत कुछ औ औ मैं स्वयं का निमा conseguir पैदा होते समय व्यक्ति महापुरूष नहीं होता। एक भी महापुरूष नहीं हुआ। आगे जाकर के महापुरूष बने। शुरू में राम अपने आप में महापुरूष थे नहीं। न कृष्ण महापुरूष थे, न बुद्ध महापुरूष थे। राजा के पुत्र थे वे सब। शुरू में सामान्य बालक थे, वैसे ही दौड़ते थे, घूमते थे, खेलते थे।।।।। वैसे ही थे जैसे हम और आप हैं। बाद में जाकर उन्होंने उस चीज को समझा जिसका मैंने अभी उल्लेख किया कि मुझे अगर कुछ निर्माण करना है और कुछ बनना है तो मेरी बागडोर मेरे हाथ में है।
जब linha यह भाव हो कि तो अपन अपना खुद का हूं, नहीं मैं किसी के हृदय उत उतउत चुका हूं। जब उतर चुका हूं तो उनक उनका कर्त्तव्य है वह वह मुझे उस पहुँच पहुँचाये। पत्नी शादी करने के बाद निश्चित हो जाती है कि यह पति का कर्त्तव्य है कि झोपड़ी में रखे, महल में रखे, गहने पहनाये या नहीं, मारे या प्यार करे। वह अपना हाथ उसके हाथ में सौप देती है।
इसलिये कबीर ने कहा है कि मैं राम की बहुरिया हूं। सूर ने कहा है मैं कृष कृष्ण की प्रयेसी हूँ, इसीलिये जायसी ने कहा कि मैं तो सही अर्थों में नारी हूं, ईश्वर की चेरी हूं, दासी हूं। ये सब पुरूष हैं जिन्होंने ये बातें कही और इसीलिये कही कि इन्होंने अपने आपको ईश्वर के हाथों में सौंप दिया है और आप गाते हैं कि अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में। है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हमरे ॹाथों Linha बोलने से आप अपने आप में ही रहेंगे। करने की क्रिया से आप उनके हृदय में उतर सकेंगे। अंतर यहीं पर आता है। जब आप आपने आपको पूर्ण ूप से सम समntas
पूर्ण रूप से समर्पित करने का मतलब है कि आप अपना अस्तित्व खो दें, यह भूल जायें कि मैं क्या हूं तो आप कुछ प्राप्त कर पायेंगे और जिसने खोया है उसने सब कुछ प्राप्त किया है। मैं शिष्यों के पास बैठता हूँ तो घण घण्टा खोता हूं, मगर यह खोत खोता, तो आपका प्यार, आपका समर्पण नहीं पाता।
हम द्वन्द्व में जीते औ और पूरा जीवन द्वन्द्व में बिता देते हैं।। चाहे गृहस्थ है या संन्यासी है, पूरा जीवन द्वन्द्व में बिताते हैं। जीवन अस अस्सी साल की उम्र में सोचते हैं क्या करें, क्या नहीं करें। प्रतिक्षण आपके मन त तर्क-वितर्क चलता ही हता है और आप निर्णय नहीं कर पाते लोग जहां आपको ठेलते हैं आप ज जाते हैं क्योंकि आप हाथ में नहीं होते।। ऐसे व्यक्ति साधारण होते हैं, मुट्ठी भर व्यक्ति, लाख में से एक दो व्यक्ति अपना जीवन अपने हाथ में रखते हैं। Linha
एक राजा पहली बार हाथी पर बैठा, सीढ़ी लगा करके। बैठने बाद उसने कहा मुझे लगाम दीजिये जिससे कि मैं चलाऊं, जैसे की लग लगाम होती, ऊंट की है है।।। लगाम होती, ऊंट की है है।। उसे कहा गया कि हाथी की लगाम नहीं होती। वह एकदम से उत उतउत गया, उसने कहा कि मैं इसकी सवारी नहीं करूंगा जिसकी लगाम नहीं होती।।।।।।।।। मैं यह सवारी नहीं कर सकता, यह सवारी मेरे काम की नहीम की नहीम की ंह वह जीवन क काम का नहीं है जिसकी लगाम आपके हाथ में नहीं है।। आपका अर्थ है शिष शिष्य और गुरू का एकात्म क्योंकि आप तो अपने आप को समर्पित कर चुके।। वह जीवन जीना बेकार है जो आपके हाथ में नहीं है, वह जीवन सार्थक है जिसमें गुरू से सामीप्यता हो, प्रसन्नता के साथ सामीप्यता हो, पूर्णता के साथ सामीप्यता हो, अप्रसन्नता के साथ नहीं हो सकती। यदि आपको ग गग ग दे दें तो सुने य य य नहीं सुने, गुगु उसे य या नहीं सुने मगर वातावरू में वह बात तैतै तै है औntas आप जब भी ऐसी ब बात करते हैं, निन्दा करते हैं या गाली देते हैं तो अपने आप में एक नीचे उत उतर जाते हैं।। जब भी आप क कntas विक्रमादित्य भौतिक दृष्टी से एक पूर्णता प्राप्त marca औा और नानक एक फक्कड़ दिव्यमय ज्ञानी साधु दोनों त तntas मगर गधे की तरह काम करेंगे तो राजा की तरह जी पाएंग शेक्सपीयर ने कहा कि दिन में गधे की तरह जीना चाहिये और र गधे र र तntas श्वेताश्वेतरोपनिषद में कहा है कि वह चाहे बालक हो, पुरूष हो या स्त्री हो जो जीवन अपने हाथ में रखता है या गुरू के हाथ में रखता है वही सफल हो सकता है। सिक्के को हम भ भागों में ब बांट सकते कि सिक्का अगला भाग है औऔ यह पिछला भाग है।।।।। है औ औ यहा भाग सिक्के दो भाग अलग-अलग होते नहीं। एक ही सिक्के के दो भाग होते हैं।
इसी तरह एक प पntas दोनों मिल मिलाकर एक पूरा सिक्का बनता है औ औ वह बाजार में चलता है, जीवन में चलता है।। जब शिष्य गुरू में ज जाता है, प्रसन्नता के साथ में तो मिलन मिलना एक निष्ठा की से होत होता है।।।। निष निष की से होत होत है। Linha मेरा मतलब यह नहीं है कि आप मेरा काम करें। मैं तो केवल श्लोक का अर्थ स्पष्ट कर रहा हूं। आप गुरू को देखें या नहीं देखें परन्तु प्रतिक्षण उनके कार्य में संलग्न रहते हैं, सचेष्ट रहते हैं, निरन्तर आगे बढ़ कर उनके कार्य को करते हैं तो मन में एक संतोष होता है कि मैंने वास्तव में एक क्षण को जीया है, फेंका नहीं है इस क्षण को। इस क्षण में मैंने कुछ किय किया है, व्यर्थ नहीं किया है इस क्षण को। इस क्षण में कुछ रचना की है, गालीयां नहीं दी हैं। इस क्षण में क का स्मरण किया है, किसी के हृदय उत उतरने की क्रिया की है।।। क्षण आपका है, आप चाहें दो त ताश में बिता दें, वह चाहे आप क करके या कोई कार्य करके बिता दें।
भाग्य या जीवन तो आपके हाथ में है। सामान्य मनुष्य बस जीवन जी कर बिता लेते हैं। आप जाकर देख लें सड़क पर सब सामान्य मनुष्य हैं। उनमें विशेषत विशेषता है ही नहीं, उन्हें पता ही नहीं कि उनके आस-पास कौन marca हत है। शिव कहां marca हैं यह म मालूम है क्योंकि हर क्षण मैंने किय किया है।।।।।।। इस पद प प्राप्त करने के लिए तिल-क करके अपने खून जल जलाया है। Linha उस सृजन क कक के लिए व्यक्ति को अपने आप जलाना ही पड़ता है।। खून ज जाता है व वापस आ जाता है, मांस जल जाता है तो वापस आ जाता है, मगर गया समय व वापस नहीं आता। अगर मैं कंकाल भी ज जाऊं, मांस भी जाये तो मांस वापस चढ़ जायेगा। Linha
Linha कोई भाग्य का निर्माण करके मुझे नहीं दे सकता। मुझे महानता कोई नहीं दे सकता। वह तो सब मुझे को प प्राप्त करना पड़ेगा, इसके लिए खुद को जलाना पड़ेगा। उसके लिए रचनात्मक चिंतन करना पड़ेगा। उसके प प्रेम करना पड़ेगा, किसी के हृदय में उतरना पड़ेगा और एकनिष्ठ होना पड़ेगा। किनारे पर खड़े होकर नदी को या तालाब आप सोचेंगे कि गुरू जी को भी देख लेते हैं, घर को भी देख लेते हैं और बाहर का काम भी देख लेते हैं, सब कुछ एक साथ कर लेते हैं- यह एक निष्ठता नहीं है। एकनिष्ठता का अर्थ है कि एकचित होकर के तीर की तरह एक लक्ष्य पर अचूक हो जाना और जो तीर की तरह चलता है वह जीवन में सर्वोच्चता प्राप्त करता है और जो सर्वोच्चता प्राप्त करता है उसे संसार देखता है और जिसको संसार देखता है उसका जीवन धन्य होता है।
आपकी पीढि़य pos. इनकी आवाज पर लाखों लोग नाचने लग जाते हैं, झूमने ज जाते हैं।। उन्हें भी लगता है कि कुछ तो है इस बालक में, कुछ है और उनको वह प्यारा अनुभव होता है और व्यक्ति पहले दिन से लगाकर अंतिम दिन तक बालक ही रहता है यदि सीखने की क्रिया हो, निरन्तर आगे बढ़ने की क्रिया हो, यदि प्यार करने की क्रिया हो और वह क्रिया भी अपने हाथ में है।
इस उपनिषद में कहा गया है कि सब कुछ आप के हाथ में है आप कैसा जीवन जीना चाहते हैं, घटिया, रोते-झींकते हुए दुःख में अपने जीवन को बर्बाद करते हुए या अपने आप एकनिष्ठता प्राप्त करते हुए जीवन में प्रत्येक क्षण आनन्द प्राप्त करते हुए मुस्कुराहट के साथ में, चिंतन के साथ में, का conseguir कैसा जीवन आप व्यतीत करना चाहते हैं। वह ह हाथ में औ औntas जो श्लोक है व व्याख्या जिसने लिखी है उस ऋषि ने होगी औ औऔ किसी ने नहीं की होगी।।।।।।।।।।। उसका तथ्य समझा नहीं होगा, उसका चिन्तन समझा नह।ं समझा नह।ं इसलिये कहता हूं कि को कृष कृष्ण के अलावा किसी समझ समझा नहीं है।।।।।।। है नहीं है। उनके श्लोकों को लोगो ने समझा ही नहीं। उनकी नवीन ढंग से चिन्तन व्याख्या होनी आवश्यक है।्यक
यह एक जीवन का मेरा लक्ष्य है, उद्देश्य है। आपका भाग्य-दुर्भाग्य, आयु-पूर्णायु, अमरत्व और मृत्यु, पूर्णता और अपूर्णता सब कुछ आपके हाथ में है, मगर उसका बेस एकनिषा कुछ आपके ह हाथ में, मगर उसका बेस एकनिष्ठता है।।। ह ह ह ह ह मगomas आप जीवन एकनिष एकनिष्ठ बने ऐसा ही मैं आपको आशीर्वाद देता हूं।।। श्वेताश्वेतरोपनिषद बहुत ही महत्वपूर्ण उपनिषद् है और इसका भाव विश्व आज नहीं तो कल अवश्य ही समझेगा और जब समझेगा तो यह ग्रंथ सबसे आगे की पंक्ति में खड़ा होगा। इस उपनिषद में ऋषि ने अपने सारे ज्ञान को बांध कर रख दिया है और उन्होंने कहा है कि व्यक्ति में कमी है ही और यह कमी रहेगी भी क्योंकि वह समझते हुये भी नासमझ बना रहता है। जानते हुये भी अज्ञानता अपने अन्दर स्थापित करता रहता है, प्रकाश की किरण बिखरने पर भी वापस अंधकार में स्वयं को ठेल देता है।
ऋषि यह कहना चाहते है कि मैं समझा रहा हूँ शिष्यों को मगर शिष्य पांच मिनट के बाद फिर इस ज्ञान की किरण पर अपने अंधकार को ढक देंगे और मेरा कहा हुआ बेकार हो जायेगा। जो चिंतन प प्रस्तुत किया है वह दो य या पांच मिनट marca औा और वापस इसके ऊपर जम जायेगी और यह चिन्तन समाप्त हो जायेगायेगी। औ औ चिन्तन समाप्त हो जायेगायेगा।। औ औ gre यह व्यक्ति का स्वभाव है और रहेगा। जो स स्वभाव को धक्का मार कर आगे ज जाता है वह अपने आप में ऊंचाई की ओओ पहला कदम खत अपने आप। ऊंच ऊंचाई
ऋषि ने ब बात यह कही व व्यक्ति जानते हुए अनज अनजान बना marca हत है क Para अनजान इसलिये बना marca है कि सु सुरक्षित है, वह कहता है मुझे इसका ज्ञान नहीं क्योंकि इससे लाभ नहीं ज।। Linha
दुनिया जैसी चीज इस संसार में है ही नहीं। दुनिया जैसा शब्द है ही नहीं, संसार जैसा शब्द है ही्द है ही्द है ह देश जैसा भी कोई शब्द नहीं है। क्योंकि देश या संसार या विश्व ये व व्यक्तियों के समूह से बनते हैं।। ऐसा नहीं कह सकते कि यह देश है। एक नक्शा है वह देश तो हो ही नहीं सकता। देश के लिए आवश्यक है कि लोग हो। एक निश्चित भूभाग पर वाले लोग देश निव निवासी कहलाते हैं।। आप भारत वर्ष के लोग है इसलिये भारतवर्ष है। भारत में कोई मनुष्य marca इस श्वेताश्वेतरोपनिषद के marca चनाकर ने सिख सिखा दिया कि हम प पप पड़े हकहकहक आसमान में छेद क क प हैं पड़े हक हकहक आसमान में कैसे क क सकते हैं हक जमीन पर खड़े होकहोक देवताओं के समान पूरे विश्व में वन वन्दनीय हो सकते, जमीन प पntas
उस ऋषि व वाणी को मैं आपके हृदय उत उतार ा हूं जिससे आपके हृदय का अंधका marca मैं आपको ऐसा आशीर्वाद दे रहा हूं कि आप एक सामान्य व्यक्ति से आगे बढ़ करके जिज्ञासु, जिज्ञासु से आगे बढ़ करके शिष्य, शिष्य से आगे बढ़ करके आत्मीय बन जाएं, एकाकार हो जाएं, झूमने लग जाएं। ऐसी स्थिति आपकी बने, मैं ऐसा ही आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूं।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
Sr. Kailash Shrimali
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